Saturday, August 7, 2010

श्लोक २१....[मराठी]
मना वासना चूकवी येरझारा|
मना कामना सांडि रे द्रव्यदारा||
मना यातना थोर हे गर्भवासी|
मना सज्जना भेटवी राघवासी||२१||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
आन्र जाने की वासना चूकजाये|
मन कामना छोड तु द्रव्य साये|
यातना गर्भवास की भयंकर है रे|
इसलिये मिला दे मन राघव को रे||श्रीराम||२१||
अर्थ...... श्रीरामदासजी कहते है कि हे मनुष्य ! अपनी इच्छाओ ,आकाक्षांओ को दूर करने का प्रयत्न करते रहना चहिये| धन द्रव्य की इच्छाओ से दूर रहना चाहिये| क्योकि धन-द्रव्य की वासनायें नाश का पथ है|मॉ के गर्भवास मे बालक को जब अत्यंत यातनाये सहनी होती है| उस समय बालक को लगता है कि उसे श्रीराम से मिला दो |उस बंदीवास से मुक्ति मिल जाये|पर यह सब समयानुसार ही होता है| अत: हमारे हाथ मे सिर्फ़ राम का स्मरण ही करते रहना है, जो हम सतत करते रहे|.


श्लोक २२.. [मराठी]
मना सज्जना हीत माझे करावे |
रघुनायका द्रुढ चित्ती धरावे||
महाराज तो स्वामी वायु सुताचा|
जना उध्दरी नाथ लोकत्रयाचा||श्रीराम||२२||
[हिन्दी मे]
चाहे हर मन ,मेरा ही भला हो|
तो रघुनायक को चित्त में धर लो||
वो स्वामी है राजा वायुसूत का|
जन को त्रैलोक्यनाथ है उध्दरता||श्रीराम||२२||
अर्थ........ श्रीराम दासजी कहते है कि हे मानव मन ! प्रत्यैक प्राणि को ऐसा लगता है कि मेरा ही भला हो| अत: अपना भला करने के लिये हे मानव ! अपने मन मे श्रीराम को द्रुढता पूर्वक बसाने का प्रयत्न करना चाहिये|सर्वलोक के स्वामी श्रीराम चन्द्रजी वायूपुत्र हनुमान जी के राजा है |वही तीनो लोको के जनो का उध्दार करने वाले है| अत: मनुष्य को चहिये कि अपना उध्दार करने के लिये द्रुढता पूर्वक राम जी को अपने मन मे बसाओ|..............

श्लोक २३......[मराठी]

न बोले मना राघवेविण काही|
जनी वाउगे बोलता सूख नाही||
घडीने घडी काळ आयुष्य नेतो|
देहांती तुला कोण सोडू पहातो||
[हिन्दी मे]
न बोलो अरे मन राघव के अलावा|
जनो मे नही सुख वाचालता से मिलता||
क्षण-क्षण को काल आयुष्य है लेता|
अंत समय पर है कौन काम आता||
अर्थ.... श्रीरामदासजी कहते है कि श्रीराम के नाम के अलावा दुसरो को कष्ट देने वाली भाषा का प्रयोग नही करना चाहिये| उससे जीवन मे मानव को कभी भी सुख नही मिलता है| इसलिये हे मनुष्य ! बोलते समय सदैव अच्छी भाषा का प्रयोग करना चाहिये तथा राम नाम कहते रहना चाहिये| प्रत्येक क्षण पश्चात अगले ही क्षण आयु काम होती जाती है| अत:अंत काल के बाद हमारे साथ कोई नही रहता | सभी साथ छोड देते है| इसलिये श्रीराम का नाम ही जीवन सार्थक करने का एकमात्र पथ है| अत: सदैव श्रीराम कहते रहना चाहिये|


श्लोक २४... [मराठी]

रघुनायका वीण वाया शिणावे|
जना सारिखे व्यर्थ कां वोसणावे||
सदासर्वदा नाम वाचे वसो दे|
अहंता मनी पापिणी ते नसो दे||श्रीराम||२४||
[ हिन्दी मे]
रघुराम के बिन क्यो तु थका है|
जनो के जैसे व्यर्थ सम ये गवां रे||
सदासर्वदा नाम वाचा पर रख ले|
अहं पाप है वो तुझमे ना हो ले||श्रीराम||२४||
श्रीरामदासजी कहते है कि हे मानव मन ! श्रीराम के नामस्मरण के बिना जीवन में सब कुछ व्यर्थ है| दूसरे को कटू भाषा मे निरर्थक बोलते रहना व्यर्थ है| इसलिये सदैव रामनाम ही बोलो | हे मनुष्य ! इस पापीमन मे अहंकार का लेशमात्र भी रहना नही चाहिये| अत: सदैव म्रुदु भाषा मे दुसरे से बात कहना चाहिये तथा अहंकार रहित जीवन व्यतीत करना चाहिये|.........

श्लोक २५.[मराठी]

मना वीट मानु नको बोलण्याचा|
पुढे मागुता राम जोडेल कैचा||
सुखाची घडी लोटता सूख आहे|
पुढे सर्व जाईल काही न राहे||२५||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
बुरा ना मान बोलने का ऐसा |
नही तो राम को तु पायेगा कैसा||
सुख का क्षण जाये तो भी सुख है रे|
आगे सब कुछ जायेगा कुछ ना रहे रे||
अर्थ...................श्री रामदास जी कहते है कि हे मानव ! बुरा बोलने वालो की किसी भी बात का बुरा मत मानो और उनका बुरा मत करो क्योकि बुरा बोलने वालो के साथ बुरा करने पर अपने आगे -पीछे राम नाम कैसे जोड पाओगे ? अर्थात नामस्मरण ही जीवन का सबसे बडा सुख का क्षण है| प्रत्यैक सुख के क्षण के बाद सुख का क्षण जीवन मे तब ही रह सकता है जब हम निश्चल भाव से नाम्स्मरण से जुडे रहेगे| क्योकि आगे चलकर तो सब कुछ नष्ट होना ही होता है परन्तु श्रीराम का नाम स्मरण ही सुख देता है | अत: नामस्मरण करते रहना चाहिये|....

श्लोक २६. [मराठी].
देहे रक्षणा कारणे यत्न केला|
परी शेवटी काळ घेऊनि गेला|
करी रे मना भक्ति या राघवाची||
पुढे अंतरी सोडि चिन्ता भवाची||श्रीराम||२६||
[हिन्दी मे]
देह रक्षण कारण से यत्न किया|
फ़िर भी काल आखीर मे ले ही गया||
अरे मन कर ले राघव की भक्ति|
अंतर से पा ले भव चिन्ता से मुक्ति||
श्रीराम||२६||
अर्थ....श्री समर्थ रामदासजी कहते है कि हे मानव मन ! अपने देह रक्षा के लिये प्रयत्न करता है परन्तु अन्त काल मे समय उसके प्राण लेही जाता है| अत: हे मनुष्य मन श्रीराघव की भक्ति के प्रति सदैव समर्पित रहे और संसार की अन्य सारी चिन्ताओ को छोडने का प्रयत्न करो| क्योकि कुछ भी हो जाये श्री राघव की भक्ति मे ही जीवन का सम्पूर्ण सार है|२६||

श्लोक २७.... [मराठी]

भवाच्या भये काय भीतोस लंडी|
धरी रे मना धीर धाकासि सांडी||
रघूनायका सारिखा स्वामी शीरी|
नुपेक्षी कदा कोपल्या दंड धारी||श्रीराम||२७||
[हिन्दी मे]
डरपोक तु डरता भव सागर के भय से|
मन मे धैर्य रख छोड तु डर रे||
राघव के जैसा है स्वामी वो तेरा|
उपेक्षा ना करता न कभी कोप करता||२७||
अर्थ....श्री राम दास जी कहते है कि हे मानव ! संसार की बातो से भय क्यो लगता है? क्यो डरपोक बनते हो? अपने मन मे धैर्य बनाये रखो| मन के डर को बाहर निकाल दो| श्रीराम चन्द्र जी जैसे स्वामी का तुम्हारे सिर पर आशिर्वाद का हाथ है |दिर भी काल का दड प्राप्त होने पर डरने की कोई आवश्यक्ता नही है| क्योकि श्रीरामचन्द्रजी भगवान अपने दास की अपने भक्त की कभी भी उपेक्षा नही करते है|

श्लोक २८...[मराठी]

दिनानाथ हा राम कोदंडधारी|
पुढे देखतां काळपोटी थरारी||
मना वाक्य नेमस्त हे स्त्य मानी|
नुपेक्षी कदा रामदासाभिमानी||२८||
[हिन्दी मे]
दिनो के नाथ ये राम धनुष्य धारी|
जिसे देख थरथराता काल भारी||
अरे मन ये वचन सत्य है मान ले |
दासो का मान रख उपेक्षा न करते रे||२८||
अर्थ... श्रीरामदासजी कहते है कि हे मनुष्य ! धनुर्धारी रामचन्द्रजी दीन लोगो के अर्थात् गरीबो के नाथ है|उन्हे सामने पाकर काल भी थरथराने लगता है| यह बात अटल सत्य है | अत: ऐसे श्रीराम चन्द्रजी अपने दास पर सदैव अभिमान ही करते है| उनकी [भक्त की] उपेक्षा कदापि नही करते|

श्लोक २९..[.मराठी]
पदी राघवाचे सदा ब्रीद गाजे|
बळे भक्त रीपू शिरी कांबी वाजे||
पुरी वाहीली सर्व जेणे विमानी|
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी||श्रीराम||२९||
[हिन्दी मे]
कदम जहॉ रखे रघु, वहॉ ब्रीद गरजता|
बल पूर्वक भक्त से कांबी वहॉ बजता||
विमान देख राम का पुरी दौडी आयी|
उपेक्षा न करते कभी दासाभिमानी||श्रीराम||२९||
अर्थ..... श्रीराम रामदास जी कहते है कि हे मानव मन ! श्रीराम चन्द्रजी ने जैसे ही अयोध्या पुरी मे कदम रखे धनुष्य की टंकार गुन्जायमान हो उठी और सम्पूर्ण अयोध्यापुरी के लोग वहॉ पहूच गये,जहॉ पुष्पक विमान से श्रीराम जी उतरे थे|ऐसे श्रीराम चन्द्रजी अपने भक्तो की सदैव रक्षा करते है| उनकी उपेक्षा कदापि नही करते|

श्लोक ३०..[मराठी]
समर्थाचिया सेवका वक्र पाहे |
असा सर्व भू मंडळी कोण आहे||
जयाचि लिला वर्णीती लोक तिन्ही|
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी||श्रीराम||३०||
[हिन्दी मे]
समर्थ सेवक भक्तो को, टेढा जो देखे|
ऐसा सारे भू मंडल पर कौन है रे||
जिसकी लिलाये तिन्हो लोको मे फ़ैले|
उसकी[भक्त की] उपेक्षा न करते राम है रे||
अर्थ......श्री राम दासजी कहते कि हे मानव मन ! श्रीराम चन्द्र जी प्रत्येक कार्य के लिये समर्थ है| ऐसे श्रीराम के भक्त की ओर कोई तिरछी द्रिष्टी डाले ऐसा संभव ही नही है, अर्थात् ऐसा आज तक कोई पैदा नही हुआ जो राम भक्त का बूरा कर सके| ऐसे श्रीराम जिनके कार्य कलापो का वर्णन तीनो लोको मे होता है एवं सब ओर जो वंदनीय है ऐसे धनुर्धारी राम अपने भक्त का सदैव अभिमान ही करते है| उसकी उपेक्षा कभी नही करते|

श्लोक ३१......[मराठी]
महा संकटी सोडिले देव जेणे|
प्रतापे बळे आगळा सर्व गूणे||
जयाते स्मरे शैलजा शूलपाणी||
नुपेक्षी कदा रामदासाभिमानी||३१||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
महासंकट से छुडाया जिसने है देवो को|
प्रताप के बल से जिसने दिखाया रुपो को||
जिसको स्मरती है शैलजा शूलपाणी|
उपेक्षा ना करते कभी दासाभिमानी||३१||
अर्थ..... श्रीरामदासजी कहते है कि हे मनुष्य मन ! महासंकट के समय सर्वगुण सम्पन्न तथा अपने श्रेष्ठ प्रताप्बल के द्वारा श्रीरामचन्द्रजी ने देव लोक को मुक्त कराया था| जिन्हे देवी पारवती तथा श्री शंकर जी भी नमन् करते है|ऐसे प्रतापी श्रीराम अपने भक्तो की उपेक्षा कभी भी नही करते बल्कि उनका मान ही रखते है|

श्लोक ३२... [मराठी ]
अहिल्या शिळा रावणे मुक्त केली|
पदी लागतां दिव्य होऊनि गेली||
जया वर्णितां शीणली वेदवाणी|
नुपेक्षी कदा रामदासाभिमानी||श्रीराम||३२||
[हिन्दीमे]
पदस्पर्श करके चैतन्य लाया|
अहिल्या शिला से मुक्त कर जाया||
जिसे वर्णतेन थकती है वेदवाणी|
उपेक्षा न करते कभी दासाभिमानी||३२||
अर्थ....श्रीराम दास जी कहते है कि हे मनुष्य मन ! शापग्रस्त हुई शिलारुप प्राप्त सती अहिल्या को श्रीराम चन्द्र जी ने स्त्री रुप मे लाकर मुक्त किया था| श्रीराम चन्द्र जी का पैर लगते ही अहिल्या दिव्यरुप में प्रगट हुई थी | जिसका वर्णन वेदवाणी द्वारा अपूर्व पूर्वक किया गया है| ऐसे श्रीराम चन्द्र जी जिनके स्पर्श द्वारा एक शिला भी शाप मुक्त हो सकती है तो ऐसे प्रभु सदैव अपने भक्तो पर अभिमान ही करते है उनकी उपेक्षा कभी भी नही करते|

श्लोक ३३...[मराठी]
वसे मेरुमांदार हे स्रुष्टि लीळा|
शशी सूर्य तारांगणे मेघमाळा||
चिरंजीव केले जनी दास दोन्ही|
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी||३३||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
जब तक रहे स्रुष्टि पर्वत की लिला|
शशी सुर्य तारांगणो की मेघमाला||
चिरंजीव जिसने किये है दास दोनो |
उपेक्षा न करते कभी राम भक्तो को||३३||
श्री समर्थ रामदास जी कहते है कि मांदार पर्वत पर श्री राम चन्द्र जी वास करते थे| यह स्रुष्टि की लीला कितनी अपरम्पार है| जहॉ पर चन्द्र तथा सूर्य एवं तारागण एवं मेघमालाओ से प्रफ़ुल्लित वातावरण था| यहां श्रीराम चन्द्रजी ने दोनो भक्त श्री दास मारुति अर्थात् हनुमान जी तथा विभीषण दोनो को वहा अमर किया था| ऐसे श्रीराम चन्द्र जी अपने भक्त का सदैव सम्मान करते है| उसकी उपेक्षा कभी नही करते||

श्लोक ३४..[ मराठी]
उपेक्षा कदा राम रुपी असेना|
जिवां मानवां निश्चयो तो वसेना||
शिरी भार वाहेन बोले पुराणी|
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी||श्रीराम||३४||
[हिन्दी मे]
उपेक्षा न करते रामरुप भक्त की कभी|
हर जीव मे बसते राम निश्चय से अभी||
पुराणो मे कहते है भार लुंगा मै सबका|
वो कैसे करते फ़िर दासो की उपेक्षा||
अर्थ...श्रीराम दास जी कहते है कि हे मनुष्य मन ! जो व्यक्ति श्रीराम का सच्चा भक्त है उसके मन मे श्रीराम के प्रति उपेक्षा कदापि नही आ सक्ती| प्रत्येक मानव जीव मे श्रीराम निश्चित रुप से वास करते है|पुराणो के अनुसार श्रीराम जी कहते है कि मै सम्पूर्ण भार वहन करने के लिये हू फ़िर भी मनुष्य को चिंता करने की क्या आवश्यकता है? ऐसे श्रीरामजी अपने भक्त का सदैव अभिमान ही करते है| उनकी उपेक्षा कभी भी नही करते|


श्लोक ३५....
असे हो जया अंतरी भाव जैसा |
वसे हो तया अंतरी देव ऐसा||
अनन्यासी रक्षीतसे चापपाणि|
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी||श्रीराम||३५||
[हिन्दी मे]
जैसा हो अंतर का भाव जैसा|
वैसा ही मिलता देव उसका||
अनेको को रक्षता है धनुषधारी|
उपेक्षा न करता क्भी दासाभिमानी||श्रीराम||३५||
अर्थ.....
श्रीरामदास जी कहते है कि हे मानव ! प्रत्येक व्यक्ति के मन मे उसके अपने भाव या विचार होते है| अत: जिस मानव मे प्रभु के प्रति जैसी भावना होती है, परमेश्वर उसी भाव मे उस व्यक्ति के मन मे वास करते है| धनुर्धारी श्रीराम जी ऐसे भक्त की जो देह के प्रति ,अर्थात शरीर से मोह नही रखता हो , अभिमान नही करता हो , उसकी रक्षा ही करते है| उसकी उपेक्षा कदापि नही करते|

श्लोक ३६....[मराठी]
सदा सर्वदा देव सन्निध्य आहे|
क्रुपाळू पणे अल्प धारिष्ट पाहे||
सुखानंद -आनंद कैवल्यदानी|
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी||श्रीराम||३६||
[हिन्दीमे]
सदा सर्वदा देव सान्निध्य रहता|
क्रुपालुतासे अल्प धारिष्ट देखता||
सुखानंद आनंद -कैवल्यदानी|
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी||३६||
अर्थ......श्रीरामदास जी के अनुसार ..... हे मनुष्यमन ! परमेश्वर सदैव हमारे सान्निध्य मे रहता है| वह हमारे समीप रहकर भी क्रुपालुता से हमारे वैराग्यता का धैर्य देखता रहता है| उसके अनुसार हम उसकी परीक्षा की कसौटी पर कितने खरे उतरते है? सुख और आनंद देने वाला वही है | मोक्षदाता दानी भी वही है श्रीराम| उनकी भक्ति से ही मोक्ष प्राप्त होता है| ऐसे श्रीराम जी अपने दास का सदैव अभिमान ही करते है , उसकी उपेक्षा कदापि नही करते|

श्लोक... ३७ [मराठी ]
सदा चक्रवाकासि मार्तण्ड जैसा|
उडी घालितो संकटी स्वामी तैसा||
हरि भक्तिचा घाव गाजे निशाणी|
नुपेक्षी कदाराम दासाभिमानी||श्रीराम||३७||
[हिन्दी मे]
सदा चक्रवाक बना मार्तण्ड जैसा |
दौडा है आता संकट में स्वामी वैसा|
हरी भक्तो का गीत गरजता है डंका|
उपेक्षा न करता राम सखा है भक्त का||३७||
अर्थ... श्रीरामदास जी कहते है कि हे मानव मन ! जिस प्रकार से चक्रवात के समय सामने सूर्य आ जाता है|वैसे ही संकट के समय मे साथ देने वाले स्वामी श्रीराम जी है| ऐसे स्वामी की अच्छाईयो की गूंन्ज नगारो पर हरि भक्ति के रुप मे गुंजती रहती है| ऐसे श्रीराम सदैव अपने भक्तो का अभिमान ही करते है, उसकी उपेक्षा कभी भी नही करते|

[श्लोक नंबर २७ से ३७ तक" श्रीराम जी भक्तो के स्वाभिमान की रक्षा करते है एवं श्लोक नंबर ३८ से ४२ तक मनुष्य को श्रीराम के मन मे बसने का आग्रह करते है| ]

श्लोक ३८..[मराठी]
मना प्रार्थना तुजला एक आहे|
र्घुनाथ थक्कित होऊनी पाहे||
अवज्ञा कदा हो यदर्थी न कीजे|
मना सज्जना राघवी वस्तिकीजे||श्रीराम||३८||
[हिन्दी मे]
हे मन प्रार्थना तुझको एक है रे|
रघुनाथ आश्चर्य चकित हो के देखे||
अवज्ञा कभी भी मन तु न कर रे|
हे मन सज्जन राघव के मन बस रे||३८||
अर्थ..... श्रीरामदासजी कहते है कि हे मानव मन ! तुमसे एक प्रार्थना है कि तुम्हारा आचरण सदैव ऐसा हो जिसको देखकर श्री राम चन्द्र जी भी आश्चर्य चकित हो कर देखते रह जाये| हमाराऐसा व्य्वहार हो जिसमे किसी का अनादर ना हो | हे मनुष्य ! ऐसे सज्जन पुरुष बनकर जीवन जियो तथा श्रीराम स्वरुपी सदैव लीन होकर रहो,अर्थात् श्री राघव को अपने मन मे बसाओ और खुद भी राघव के मन मे समाओ|

श्लोक ३९..[मराठी]
जया वर्णिती वेद शास्त्रे पुराणे |
जयाचेनि योगे समाधान बाणे||
तयालागि हे सर्व चांचल्य दीजे|
मना सज्जना राघवी वस्ति कीजे||श्रीरम||३९||
[हिन्दी मे]
वदे शास्त्र पुराण जिसे है वर्णता|
जिसके दर्शन से समाधान मिलता||
उसके लिये ये चंचलता दी जो|
हे मन ! सज्जन राघव मन बस जो||
अर्थ.... श्रीरामदासजी कहते है कि हे मानव ! जिसका वेद शास्त्र पुराणो मे भी वर्णन है जो योग कर्मादि मे, समाधि मे लीन हो उसके इस कार्य से समाधान प्राप्त होता है, उसे यह सारी चंचलता दे दो | हे मनुष्य ! ऐसे सज्जन पुरुष बनकर श्रीराम स्वरुप मे लीन होकर रहना चाहिये|

श्लोक ४०.. [मराठी]
मना पाविजे सर्व ही सूख जेथे|
अती आदरे ठेविजे लक्ष तेथे||
विवेके कुडी कल्पना पालटीजे |
मना सज्जना राघवी वस्ति कीजे||श्रीराम||४०||
[हिन्दी मे]
हे मन तु चाहे सारे सुख जहॉ पर|
अति आदर रखता लक्ष से वहॉ पर||
बुरी कल्पना जो विवेक से है जाती|
हे सज्जन मन राघव मन कर बस्ती||श्रीराम||४०||
अर्थ..... श्रीराम दास जी कहते है कि हे मनुष्य ! तु कितना स्वार्थी है कि जहॉ पर सारी सुख सुविधाये प्राप्त होती है वही पर ज्यादा आदर देने का कार्य करता है तथा उसी व्यक्ति मात्र की ओर ध्यान देता है|अत: हे मानव ! परमेश्वर का भी ऐसा ही होता है कि जहॉ उसे याद किया जाता है वही वह ध्यान देता है| इसलिये अपने मन की बुरी तथा दुष्ट अर्थात् अशुध्द कल्पनाओं को अपने मन से दूर करना चाहिये तथा श्रीराम की भक्ति मे लीन रहना चाहिये|

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