Saturday, August 7, 2010

प्रथम प्रुष्ठ.........

विषेश ..श्लोक...
उपासना को चलाओ तुम मन से|
भुदेव संतो को वंदित हो तन से||
सत्कर्म करने मे ही उम्र गुजारो|
सदामुख से मंगल वचन को सराहो||
अर्थ.......... श्री समर्थ रामदासजी कहते है कि परमेश्वर की उपासना अर्थात् भक्ति के मार्ग पर चलकर भक्ति के नियमो का द्रुढता पूर्वक पालन करते रहना चाहिये| प्रुथ्वी के देव अर्थात् संत लोगो के प्रति सदैव नम्रता का व्यवहार करते रहना चाहिये|संतो के प्रति सदैव नमित होकर रहने से सत् कर्म की प्रव्रुत्ति होती है| सदैव अच्छे कार्य अर्थात् सत्कर्म करते हुए जीवन को सार्थक करना चाहिये| श्रीरामदासजी का कहना है कि मुख से सदैव अम्रुतमय भाषा जा प्रयोग करना चाहिये|
||श्रीराम जय राम जय जय राम||.........


मनाचे श्लोक

॥ जय जय रघुवीर समर्थ ॥

श्री रामदासस्वामिंचे श्री मनाचे श्लोक

गणाधीश जो ईश सर्वा गुणांचा ।
मुळारंभ आरंभ तो निर्गुणाचा ॥
नमूं शारदा मूळ चत्वार वाचा ।
गमू पंथ आनंत या राघवाचा ॥ १ ॥

श्लोक [१]
गणो के धीश जो, गुणो के ईश है |
मूल के आरंभ में,सम्पूर्ण निर्गुण है||
नमन् शारदा को ,चत्वार की वाचा|
अनंत पथ है जो, राघव का साचा||
अर्थ.......श्री समर्थरामदासजी का कहना है कि श्री गणेश जो शिवगणो के एवं सर्व गुणो के राजा है, सभी गुणो से परिपूर्ण है,|वही जीवन के मूल मे अर्थात् आरंभ मे निर्गुण परब्रहम स्वरुप है, उन्हे नमन् करो और अन्तर्मन से मॉ सरस्वती का नमन् करो| इस प्रकार से अपनी चत्वार वाणी द्वारा ईश को प्राप्त करो| इस प्रकार परब्रहम परमेश्वर का किया नमन् श्रीराम को प्राप्त करने का अनंत पथ है| अत: इस पर चलकर अपना जीवन सार्थक करने का प्रयास करो||श्रीराम||१||..........


प्रथम प्रुष्ठ.........

विषेश ..श्लोक...
उपासना को चलाओ तुम मन से|
भुदेव संतो को वंदित हो तन से||
सत्कर्म करने मे ही उम्र गुजारो|
सदामुख से मंगल वचन को सराहो||
अर्थ.......... श्री समर्थ रामदासजी कहते है कि परमेश्वर की उपासना अर्थात् भक्ति के मार्ग पर चलकर भक्ति के नियमो का द्रुढता पूर्वक पालन करते रहना चाहिये| प्रुथ्वी के देव अर्थात् संत लोगो के प्रति सदैव नम्रता का व्यवहार करते रहना चाहिये|संतो के प्रति सदैव नमित होकर रहने से सत् कर्म की प्रव्रुत्ति होती है| सदैव अच्छे कार्य अर्थात् सत्कर्म करते हुए जीवन को सार्थक करना चाहिये| श्रीरामदासजी का कहना है कि मुख से सदैव अम्रुतमय भाषा जा प्रयोग करना चाहिये|
||श्रीराम जय राम जय जय राम||.........


मना सज्जना भक्तिपंथेची जावे ।
तरी श्रीहरी पाविजेतो स्वभावे ॥
जनीं निंद्य ते सर्व सोडूनी द्यावे ।
जनीं वंद्य ते सर्व भावे करावे ॥ २ ॥

श्लोक [२].....
हे मन सज्जन, मार्ग भक्ति पर जाना|
तभी श्री हरि को सहज में है पाना||
जनी नींद्य है जो, उसे छोड दे रे|
जनी वंद्य है जो उसे क्र तु ले रे||श्रीराम||२||
अर्थ-- श्री रामदास जी कहते है कि हे मानव मन ! नम्रता पूर्वक सज्जन लोगो की तरह भक्ति के मार्ग पर चलते रहना चहिये| जिसमे तुम्हारा कल्याण है| सज्जनता के व्यवहार से तुम श्री हरि को स्वाभाविक रुप से पा सकने मे समर्थ हो सकोगे | हे मानव ! जो कार्य मानव समाज मे नींदा करने योग्य या लज्जा जनक हो उसे छोडने का प्रयत्न करना चाहिये| जो वंदन करने योग्य हो उसे सदैव करते रहना चाहिये| जिसके कारण तुम स्वाभाविक रुप से श्री हरि के निकट अपने को पा सकोगे||२||


प्रभाते मनीं राम चिंतीत जावा ।
पुढे वेखरी राम आधी वदावा ॥
सदाचार हा थोर सांडू नये तो ।
जनीं तोचि तो मानवी धन्य होतो ॥ ३ ॥

श्लोक [३]...
प्रभाती समय मे, श्रीराम को ध्याओ|
मुख से प्रथम राम ,शब्द निकालो||
सदाचार महान है कभी छोडो इसे न|
वही जन मे मानव होता रे धन्य||श्रीराम३||
अर्थ....... श्रीरामदासजी कहते है कि हे मानव ! प्रात: समय मे मुख से श्रीराम का चिंतन करते रहना चाहिये | सदैव सदाचार का आचरण रखना चाहिये| वाणी से प्रथम श्रीराम कहो, तब घर संसार अर्थत् प्रपंच का कार्य प्रारंभ करना चाहिये| सदाचार का आचरण रखना सदैव महानता का लक्षण है|उसका जो पालन करेगा वही मानव जीवन मे धन्य तथा वंदनीय है||३||..


मना वासना दुष्ट कामा न ये रे ।
मना सर्वथा पापबुद्धी नको रे ॥
मना सर्वथा नीति सोडू नको हो ।
मना अंतरी सार वीचार राहो ॥ ४ ॥

श्लोक ४...
मन की वासना दुष्ट है जो काम ना आती|
मन सर्वथा दे छोड पाप की बुध्दि||
मन धर्मता निती छोडो कभी ना|
मन अंतर मे सार विचार हो जा||४||श्रीराम||
अर्थ......... श्री राम दास जी कहते है कि हे मानव मन ! दुष्ट वासना तथा दुर्भावना कभी काम नही आती है| अत: पाप की बुध्दि दुष्टता से सदैव दूर रहना चाहिये| नीति पूर्ण कार्य और धर्म अर्थात् अपने कर्त्तव्यो के प्रति निष्टा रखना चाहिये | उसे छोडकर चलने से मन कभी भी शांत एवं संतुष्ट नही रहता |अंतर मन के विचारो मे सदैव शाश्वतता का विचार रहे अर्थात् सदैव परोपकार की भावना होना चाहिये||........



मना पापसंकल्प सोडूनि द्यावा ।
मना सत्य संकल्प जीवी धरावा ॥
मना कल्पना ते नको वीषयांची ।
विकारे घडे हो जनीं सर्व ची ची ॥ ५ ॥

श्लोक ५............
हे मन पाप संकल्प तु छोड दे रे|
मन मे सत्य का संकलप धर रे||
कल्पना ना कर मन मे विषयो की|
मन की विक्रुती ना हो जनो की||
अर्थ---श्रीरामदासजी कहते है कि हे मानव मन ! पाप कर्म करने का संकल्प छोड देना चाहिये,बल्कि पाप कर्म का संकल्प करना ही नही चाहिये| मन को सदैव निर्मल ,पवित्र होना चाहिये| सत्य के मार्ग का संकल्प सदैव होना चाहिये | मानसिकता मे विषयो के प्रति भावनाये नही होना चाहिये |नाना विषयो की कल्पना के कारण लोगो के मन मे विकार पैदा होते है| दुर्भावनाये और दुष्टता आती है| जिससे वह स्वयं का एवं समाज का नाश करता है|अत: सदैव सद्भावना से मनुष्य को अपने व्यक्तित्व मे निखार लाना चाहिये|..........


नको रे मना क्रोध हा खेदकारी ।
नको रे मना काम नाना विकारी ॥
नको रे मना सर्वदा अंगिकारू ।
नको रे मना मत्सरू दंभ भारू ॥ ६ ॥

श्लोक ६............
क्रोध तु ना कर जो होता है खेदकारी |
मन की कामना होती तब नाना विकारी||
अंगीकार ना कर लोभ कातु रे|
मन,मत्सर दंभ से भर ना तु रे|
अर्थ.....................श्रीराम दासजी कहते है कि हे मनुष्य मन ! क्रोध ना करो| क्रोध करने से अंत मे पश्चाताप करना पडता है| नाना प्रकार के विकार पैदा करने वाले कार्य कभी भी नही करने चाहिये| अपने मन मे लोभ की भावना पैदा नही करना चाहिये| अपने मे अहंकार एवं द्वेष की भावना कभी भी नही रखना चाहिए|वरना हम अपना ही नाश कर लेते है|लोभी मानव के लिये यह कार्य विकार पैदा करता है| अत: अहंकार एवं द्वेष से सदैव दूर रहना चाहिये| वरना अंत मे पछताना पडता है| .....

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