Friday, August 20, 2010

श्लोक 41-60[मराठी][हिन्दी मे]

श्लोक ४१..[मराठी]
बहु हिंडता सौख्य होणार नाही
शिणावे परी नातुडे हीत कांही
विचारे बरे अंतरा बोधवीजे
मना सज्जना राघवी वस्ति कीजेश्रीराम४१
[हिन्दी मे]
यु ही भटकने से कभी सुख नही मिलता
थकने पर भी कुछ प्राप्त नही होता
विचार करने पर अंतर मे होता रे
हे मन ! सज्जन राघव के मन में बस रे४१
सार्थ..... श्रीरामदासजी कहते है कि हे मनुष्य मन ! अत्यंत व्यर्थ मे भटकने से सुख की प्राप्ति नही होती है अत्यधिक व्यर्थ भटककर थकने पर अपने हित के लिये कुछ भी प्राप्त नही होता है यह सत्य है अत: इस पर विचार करके तो देखो, अपने अंत:करण से पूछकर तो देखो ? इसलिये हे मनुष्य ! अपने को सज्जन व्यक्ति बनाने का प्रयत्न करके श्रीराम स्वरुप मे लीन होकर जीवन व्यतीत करना चाहिये

श्लोक ४२.... [मराठी].
बहुता परी हेचि आतां धरावे
रघुनायका आपुलेसे करावे
दिनानाथ हे तोडरी ब्रीद ग़ाज़े
मना सज्जना राघवी वस्ती कीजे
[हिन्दी मे]
हे मन सज्जन एक मन मे धर ले
जनो में अपना हित तु कर ले
रघुराम बिन कुछ नही होता है रे
सदा मन मे निज ध्यास उसका तु रख रे
अर्थ.... श्रीराम दास जी कहते है कि हे मानव मन ! समाज उध्दार के लिये अपने नामस्मरण से एवं सद् कार्य से श्रीराम को अपना बनाने का प्रयत्न करना चाहिये दीनो के स्वामी श्रीराम चन्द्र जी गरीबो की रक्षा करते है उनका डंका चारो ओर गरजते है इसलिये हे मनुष्य ! सज्जनता पूर्वक आचरण करके श्रीराम के स्वरुप मे लीन होकर जीवन व्यतीत करना चाहिये जिससे अपना जीवन सार्थक हो

श्लोक..४३...[मराठी]
मना सज्जना एक जीवी धरावे
जनी आपले हीत तुवां करावे
रघूनायका वीण बोलो नको हो
सदा मानसी तो निजध्यास राहो४३श्रीराम
[हिन्दी मे]
हे मन सज्जन,मन मे एक धर ले
जनो मे अपना हित तो तु कर ले
रघुराम बिन कुछ होता नही रे
सदा मन मे निजध्यास उसका तु रख रेश्रीराम४३
अर्थ...... श्रीरामदास जी कहते है कि हे मनुष्य मन ! सज्जन व्यक्तियो की तरह श्रीराम चन्द्र जी के नामस्मरण से अपने आपको श्रीराम से जोडने का प्रयत्न करना चाहिये इसमे स्वय,न का भी हित होगा तथा समाज मे जन्-जन् का हित भी कर सकोगे श्रीराम के बिना कुछ ना कहो,अर्थात् पूर्णरुप से राम स्वरुप में लीन हो जाओ सदैव मन में श्रीराम का निरंतर श्रवण ,मनन,चिंतन करते रहना चाहिये यही श्रीराम का नामस्मरण हमें उन तक पहूंचाने की सीढियॉ है

श्लोक ४४..... [,मराठी]

मना रे जनी मौन मुद्रा धरावी
कथा आदरे राघवाची करावी
नसे राम ते धाम दोडूनि द्यावे
सुखा लागि आरण्य सेवित जावेश्रीरा४४
[हिन्दी मे]
हे मन जन में मौन तु हो ले
कथा आदर से राघव की तु कर ले
नही राम वो धाम छोडता जा
सुख के लिये तु एकांत धरता जा
अर्थ...... श्रीरामदासजी कहते है कि हे मानव मन ! लोगो मे अपने को मौन मुद्रा मे रखना चाहिये,अर्थात् अधिक बात नही करना चाहिए सदैव श्रीराम का चिंतन करते रहना चाहिये जिस स्थान पर श्रीराम के नाम का अनादर होता हो अथवा तिरस्कार किया जाता हो उस स्थान पर रुकना सदैव अनुचित होगा, अर्थात् वह स्थान तुरंत छोड देना चाहिये मनुष्य को सुख पाने के लिये चाहे जंगल ही क्यो न मिले? परन्तु श्रीराम का वहॉ आदर अवश्य होता है तो उसे वहॉ भी रहने मे कोई हर्ज नही मुख्य बात यह है कि श्रीराम को पाने के लिये एकांत का सेवन करिये...

श्लोक ४५...[मराठी]

जयाचेनि संगे समाधान भंगे
अहंता अकस्मात येऊनि लागे
तये संगतिची जनी कोण गोडी
जिये संगति ने मती राम जोडीश्रीराम४५
[हिन्दी मे]
जिसके संग से समाधान हटता
अहंकार अकस्मात मन मे समाता
उसके संग की तुझे क्यो है आस
जिसके संग से छोडे राम खास
अर्थ..... श्रीरामदासजी कहते है कि हे मानव मन ! जिसकी संगति से अपनी समाधि अर्थात् ध्यान भंग या शांति भंग होती है और अचानक ही अंहकार की भावना मन मे आने लगती हो उस संगति को कौन पसंद करेगा ? श्रीराम का नाम इतना पवित्र है कि ऐसी संगति कोई भी पसंद नही करेगा जिसकी संगति से बुध्दि में बसा रामनाम भुलाया जाय अत: प्रत्येक व्यक्ति इस बात का जरुर ध्यान रखे कि अपना जीवन सार्थक करने के लिये रामनाम का सतत् स्मरण आवश्यक है अत: सतत् ऐसी संगति का साथ रखो जिससे रामनाम ना छुट पाये

Saturday, August 7, 2010

श्लोक २१....[मराठी]
मना वासना चूकवी येरझारा|
मना कामना सांडि रे द्रव्यदारा||
मना यातना थोर हे गर्भवासी|
मना सज्जना भेटवी राघवासी||२१||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
आन्र जाने की वासना चूकजाये|
मन कामना छोड तु द्रव्य साये|
यातना गर्भवास की भयंकर है रे|
इसलिये मिला दे मन राघव को रे||श्रीराम||२१||
अर्थ...... श्रीरामदासजी कहते है कि हे मनुष्य ! अपनी इच्छाओ ,आकाक्षांओ को दूर करने का प्रयत्न करते रहना चहिये| धन द्रव्य की इच्छाओ से दूर रहना चाहिये| क्योकि धन-द्रव्य की वासनायें नाश का पथ है|मॉ के गर्भवास मे बालक को जब अत्यंत यातनाये सहनी होती है| उस समय बालक को लगता है कि उसे श्रीराम से मिला दो |उस बंदीवास से मुक्ति मिल जाये|पर यह सब समयानुसार ही होता है| अत: हमारे हाथ मे सिर्फ़ राम का स्मरण ही करते रहना है, जो हम सतत करते रहे|.


श्लोक २२.. [मराठी]
मना सज्जना हीत माझे करावे |
रघुनायका द्रुढ चित्ती धरावे||
महाराज तो स्वामी वायु सुताचा|
जना उध्दरी नाथ लोकत्रयाचा||श्रीराम||२२||
[हिन्दी मे]
चाहे हर मन ,मेरा ही भला हो|
तो रघुनायक को चित्त में धर लो||
वो स्वामी है राजा वायुसूत का|
जन को त्रैलोक्यनाथ है उध्दरता||श्रीराम||२२||
अर्थ........ श्रीराम दासजी कहते है कि हे मानव मन ! प्रत्यैक प्राणि को ऐसा लगता है कि मेरा ही भला हो| अत: अपना भला करने के लिये हे मानव ! अपने मन मे श्रीराम को द्रुढता पूर्वक बसाने का प्रयत्न करना चाहिये|सर्वलोक के स्वामी श्रीराम चन्द्रजी वायूपुत्र हनुमान जी के राजा है |वही तीनो लोको के जनो का उध्दार करने वाले है| अत: मनुष्य को चहिये कि अपना उध्दार करने के लिये द्रुढता पूर्वक राम जी को अपने मन मे बसाओ|..............

श्लोक २३......[मराठी]

न बोले मना राघवेविण काही|
जनी वाउगे बोलता सूख नाही||
घडीने घडी काळ आयुष्य नेतो|
देहांती तुला कोण सोडू पहातो||
[हिन्दी मे]
न बोलो अरे मन राघव के अलावा|
जनो मे नही सुख वाचालता से मिलता||
क्षण-क्षण को काल आयुष्य है लेता|
अंत समय पर है कौन काम आता||
अर्थ.... श्रीरामदासजी कहते है कि श्रीराम के नाम के अलावा दुसरो को कष्ट देने वाली भाषा का प्रयोग नही करना चाहिये| उससे जीवन मे मानव को कभी भी सुख नही मिलता है| इसलिये हे मनुष्य ! बोलते समय सदैव अच्छी भाषा का प्रयोग करना चाहिये तथा राम नाम कहते रहना चाहिये| प्रत्येक क्षण पश्चात अगले ही क्षण आयु काम होती जाती है| अत:अंत काल के बाद हमारे साथ कोई नही रहता | सभी साथ छोड देते है| इसलिये श्रीराम का नाम ही जीवन सार्थक करने का एकमात्र पथ है| अत: सदैव श्रीराम कहते रहना चाहिये|


श्लोक २४... [मराठी]

रघुनायका वीण वाया शिणावे|
जना सारिखे व्यर्थ कां वोसणावे||
सदासर्वदा नाम वाचे वसो दे|
अहंता मनी पापिणी ते नसो दे||श्रीराम||२४||
[ हिन्दी मे]
रघुराम के बिन क्यो तु थका है|
जनो के जैसे व्यर्थ सम ये गवां रे||
सदासर्वदा नाम वाचा पर रख ले|
अहं पाप है वो तुझमे ना हो ले||श्रीराम||२४||
श्रीरामदासजी कहते है कि हे मानव मन ! श्रीराम के नामस्मरण के बिना जीवन में सब कुछ व्यर्थ है| दूसरे को कटू भाषा मे निरर्थक बोलते रहना व्यर्थ है| इसलिये सदैव रामनाम ही बोलो | हे मनुष्य ! इस पापीमन मे अहंकार का लेशमात्र भी रहना नही चाहिये| अत: सदैव म्रुदु भाषा मे दुसरे से बात कहना चाहिये तथा अहंकार रहित जीवन व्यतीत करना चाहिये|.........

श्लोक २५.[मराठी]

मना वीट मानु नको बोलण्याचा|
पुढे मागुता राम जोडेल कैचा||
सुखाची घडी लोटता सूख आहे|
पुढे सर्व जाईल काही न राहे||२५||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
बुरा ना मान बोलने का ऐसा |
नही तो राम को तु पायेगा कैसा||
सुख का क्षण जाये तो भी सुख है रे|
आगे सब कुछ जायेगा कुछ ना रहे रे||
अर्थ...................श्री रामदास जी कहते है कि हे मानव ! बुरा बोलने वालो की किसी भी बात का बुरा मत मानो और उनका बुरा मत करो क्योकि बुरा बोलने वालो के साथ बुरा करने पर अपने आगे -पीछे राम नाम कैसे जोड पाओगे ? अर्थात नामस्मरण ही जीवन का सबसे बडा सुख का क्षण है| प्रत्यैक सुख के क्षण के बाद सुख का क्षण जीवन मे तब ही रह सकता है जब हम निश्चल भाव से नाम्स्मरण से जुडे रहेगे| क्योकि आगे चलकर तो सब कुछ नष्ट होना ही होता है परन्तु श्रीराम का नाम स्मरण ही सुख देता है | अत: नामस्मरण करते रहना चाहिये|....

श्लोक २६. [मराठी].
देहे रक्षणा कारणे यत्न केला|
परी शेवटी काळ घेऊनि गेला|
करी रे मना भक्ति या राघवाची||
पुढे अंतरी सोडि चिन्ता भवाची||श्रीराम||२६||
[हिन्दी मे]
देह रक्षण कारण से यत्न किया|
फ़िर भी काल आखीर मे ले ही गया||
अरे मन कर ले राघव की भक्ति|
अंतर से पा ले भव चिन्ता से मुक्ति||
श्रीराम||२६||
अर्थ....श्री समर्थ रामदासजी कहते है कि हे मानव मन ! अपने देह रक्षा के लिये प्रयत्न करता है परन्तु अन्त काल मे समय उसके प्राण लेही जाता है| अत: हे मनुष्य मन श्रीराघव की भक्ति के प्रति सदैव समर्पित रहे और संसार की अन्य सारी चिन्ताओ को छोडने का प्रयत्न करो| क्योकि कुछ भी हो जाये श्री राघव की भक्ति मे ही जीवन का सम्पूर्ण सार है|२६||

श्लोक २७.... [मराठी]

भवाच्या भये काय भीतोस लंडी|
धरी रे मना धीर धाकासि सांडी||
रघूनायका सारिखा स्वामी शीरी|
नुपेक्षी कदा कोपल्या दंड धारी||श्रीराम||२७||
[हिन्दी मे]
डरपोक तु डरता भव सागर के भय से|
मन मे धैर्य रख छोड तु डर रे||
राघव के जैसा है स्वामी वो तेरा|
उपेक्षा ना करता न कभी कोप करता||२७||
अर्थ....श्री राम दास जी कहते है कि हे मानव ! संसार की बातो से भय क्यो लगता है? क्यो डरपोक बनते हो? अपने मन मे धैर्य बनाये रखो| मन के डर को बाहर निकाल दो| श्रीराम चन्द्र जी जैसे स्वामी का तुम्हारे सिर पर आशिर्वाद का हाथ है |दिर भी काल का दड प्राप्त होने पर डरने की कोई आवश्यक्ता नही है| क्योकि श्रीरामचन्द्रजी भगवान अपने दास की अपने भक्त की कभी भी उपेक्षा नही करते है|

श्लोक २८...[मराठी]

दिनानाथ हा राम कोदंडधारी|
पुढे देखतां काळपोटी थरारी||
मना वाक्य नेमस्त हे स्त्य मानी|
नुपेक्षी कदा रामदासाभिमानी||२८||
[हिन्दी मे]
दिनो के नाथ ये राम धनुष्य धारी|
जिसे देख थरथराता काल भारी||
अरे मन ये वचन सत्य है मान ले |
दासो का मान रख उपेक्षा न करते रे||२८||
अर्थ... श्रीरामदासजी कहते है कि हे मनुष्य ! धनुर्धारी रामचन्द्रजी दीन लोगो के अर्थात् गरीबो के नाथ है|उन्हे सामने पाकर काल भी थरथराने लगता है| यह बात अटल सत्य है | अत: ऐसे श्रीराम चन्द्रजी अपने दास पर सदैव अभिमान ही करते है| उनकी [भक्त की] उपेक्षा कदापि नही करते|

श्लोक २९..[.मराठी]
पदी राघवाचे सदा ब्रीद गाजे|
बळे भक्त रीपू शिरी कांबी वाजे||
पुरी वाहीली सर्व जेणे विमानी|
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी||श्रीराम||२९||
[हिन्दी मे]
कदम जहॉ रखे रघु, वहॉ ब्रीद गरजता|
बल पूर्वक भक्त से कांबी वहॉ बजता||
विमान देख राम का पुरी दौडी आयी|
उपेक्षा न करते कभी दासाभिमानी||श्रीराम||२९||
अर्थ..... श्रीराम रामदास जी कहते है कि हे मानव मन ! श्रीराम चन्द्रजी ने जैसे ही अयोध्या पुरी मे कदम रखे धनुष्य की टंकार गुन्जायमान हो उठी और सम्पूर्ण अयोध्यापुरी के लोग वहॉ पहूच गये,जहॉ पुष्पक विमान से श्रीराम जी उतरे थे|ऐसे श्रीराम चन्द्रजी अपने भक्तो की सदैव रक्षा करते है| उनकी उपेक्षा कदापि नही करते|

श्लोक ३०..[मराठी]
समर्थाचिया सेवका वक्र पाहे |
असा सर्व भू मंडळी कोण आहे||
जयाचि लिला वर्णीती लोक तिन्ही|
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी||श्रीराम||३०||
[हिन्दी मे]
समर्थ सेवक भक्तो को, टेढा जो देखे|
ऐसा सारे भू मंडल पर कौन है रे||
जिसकी लिलाये तिन्हो लोको मे फ़ैले|
उसकी[भक्त की] उपेक्षा न करते राम है रे||
अर्थ......श्री राम दासजी कहते कि हे मानव मन ! श्रीराम चन्द्र जी प्रत्येक कार्य के लिये समर्थ है| ऐसे श्रीराम के भक्त की ओर कोई तिरछी द्रिष्टी डाले ऐसा संभव ही नही है, अर्थात् ऐसा आज तक कोई पैदा नही हुआ जो राम भक्त का बूरा कर सके| ऐसे श्रीराम जिनके कार्य कलापो का वर्णन तीनो लोको मे होता है एवं सब ओर जो वंदनीय है ऐसे धनुर्धारी राम अपने भक्त का सदैव अभिमान ही करते है| उसकी उपेक्षा कभी नही करते|

श्लोक ३१......[मराठी]
महा संकटी सोडिले देव जेणे|
प्रतापे बळे आगळा सर्व गूणे||
जयाते स्मरे शैलजा शूलपाणी||
नुपेक्षी कदा रामदासाभिमानी||३१||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
महासंकट से छुडाया जिसने है देवो को|
प्रताप के बल से जिसने दिखाया रुपो को||
जिसको स्मरती है शैलजा शूलपाणी|
उपेक्षा ना करते कभी दासाभिमानी||३१||
अर्थ..... श्रीरामदासजी कहते है कि हे मनुष्य मन ! महासंकट के समय सर्वगुण सम्पन्न तथा अपने श्रेष्ठ प्रताप्बल के द्वारा श्रीरामचन्द्रजी ने देव लोक को मुक्त कराया था| जिन्हे देवी पारवती तथा श्री शंकर जी भी नमन् करते है|ऐसे प्रतापी श्रीराम अपने भक्तो की उपेक्षा कभी भी नही करते बल्कि उनका मान ही रखते है|

श्लोक ३२... [मराठी ]
अहिल्या शिळा रावणे मुक्त केली|
पदी लागतां दिव्य होऊनि गेली||
जया वर्णितां शीणली वेदवाणी|
नुपेक्षी कदा रामदासाभिमानी||श्रीराम||३२||
[हिन्दीमे]
पदस्पर्श करके चैतन्य लाया|
अहिल्या शिला से मुक्त कर जाया||
जिसे वर्णतेन थकती है वेदवाणी|
उपेक्षा न करते कभी दासाभिमानी||३२||
अर्थ....श्रीराम दास जी कहते है कि हे मनुष्य मन ! शापग्रस्त हुई शिलारुप प्राप्त सती अहिल्या को श्रीराम चन्द्र जी ने स्त्री रुप मे लाकर मुक्त किया था| श्रीराम चन्द्र जी का पैर लगते ही अहिल्या दिव्यरुप में प्रगट हुई थी | जिसका वर्णन वेदवाणी द्वारा अपूर्व पूर्वक किया गया है| ऐसे श्रीराम चन्द्र जी जिनके स्पर्श द्वारा एक शिला भी शाप मुक्त हो सकती है तो ऐसे प्रभु सदैव अपने भक्तो पर अभिमान ही करते है उनकी उपेक्षा कभी भी नही करते|

श्लोक ३३...[मराठी]
वसे मेरुमांदार हे स्रुष्टि लीळा|
शशी सूर्य तारांगणे मेघमाळा||
चिरंजीव केले जनी दास दोन्ही|
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी||३३||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
जब तक रहे स्रुष्टि पर्वत की लिला|
शशी सुर्य तारांगणो की मेघमाला||
चिरंजीव जिसने किये है दास दोनो |
उपेक्षा न करते कभी राम भक्तो को||३३||
श्री समर्थ रामदास जी कहते है कि मांदार पर्वत पर श्री राम चन्द्र जी वास करते थे| यह स्रुष्टि की लीला कितनी अपरम्पार है| जहॉ पर चन्द्र तथा सूर्य एवं तारागण एवं मेघमालाओ से प्रफ़ुल्लित वातावरण था| यहां श्रीराम चन्द्रजी ने दोनो भक्त श्री दास मारुति अर्थात् हनुमान जी तथा विभीषण दोनो को वहा अमर किया था| ऐसे श्रीराम चन्द्र जी अपने भक्त का सदैव सम्मान करते है| उसकी उपेक्षा कभी नही करते||

श्लोक ३४..[ मराठी]
उपेक्षा कदा राम रुपी असेना|
जिवां मानवां निश्चयो तो वसेना||
शिरी भार वाहेन बोले पुराणी|
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी||श्रीराम||३४||
[हिन्दी मे]
उपेक्षा न करते रामरुप भक्त की कभी|
हर जीव मे बसते राम निश्चय से अभी||
पुराणो मे कहते है भार लुंगा मै सबका|
वो कैसे करते फ़िर दासो की उपेक्षा||
अर्थ...श्रीराम दास जी कहते है कि हे मनुष्य मन ! जो व्यक्ति श्रीराम का सच्चा भक्त है उसके मन मे श्रीराम के प्रति उपेक्षा कदापि नही आ सक्ती| प्रत्येक मानव जीव मे श्रीराम निश्चित रुप से वास करते है|पुराणो के अनुसार श्रीराम जी कहते है कि मै सम्पूर्ण भार वहन करने के लिये हू फ़िर भी मनुष्य को चिंता करने की क्या आवश्यकता है? ऐसे श्रीरामजी अपने भक्त का सदैव अभिमान ही करते है| उनकी उपेक्षा कभी भी नही करते|


श्लोक ३५....
असे हो जया अंतरी भाव जैसा |
वसे हो तया अंतरी देव ऐसा||
अनन्यासी रक्षीतसे चापपाणि|
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी||श्रीराम||३५||
[हिन्दी मे]
जैसा हो अंतर का भाव जैसा|
वैसा ही मिलता देव उसका||
अनेको को रक्षता है धनुषधारी|
उपेक्षा न करता क्भी दासाभिमानी||श्रीराम||३५||
अर्थ.....
श्रीरामदास जी कहते है कि हे मानव ! प्रत्येक व्यक्ति के मन मे उसके अपने भाव या विचार होते है| अत: जिस मानव मे प्रभु के प्रति जैसी भावना होती है, परमेश्वर उसी भाव मे उस व्यक्ति के मन मे वास करते है| धनुर्धारी श्रीराम जी ऐसे भक्त की जो देह के प्रति ,अर्थात शरीर से मोह नही रखता हो , अभिमान नही करता हो , उसकी रक्षा ही करते है| उसकी उपेक्षा कदापि नही करते|

श्लोक ३६....[मराठी]
सदा सर्वदा देव सन्निध्य आहे|
क्रुपाळू पणे अल्प धारिष्ट पाहे||
सुखानंद -आनंद कैवल्यदानी|
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी||श्रीराम||३६||
[हिन्दीमे]
सदा सर्वदा देव सान्निध्य रहता|
क्रुपालुतासे अल्प धारिष्ट देखता||
सुखानंद आनंद -कैवल्यदानी|
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी||३६||
अर्थ......श्रीरामदास जी के अनुसार ..... हे मनुष्यमन ! परमेश्वर सदैव हमारे सान्निध्य मे रहता है| वह हमारे समीप रहकर भी क्रुपालुता से हमारे वैराग्यता का धैर्य देखता रहता है| उसके अनुसार हम उसकी परीक्षा की कसौटी पर कितने खरे उतरते है? सुख और आनंद देने वाला वही है | मोक्षदाता दानी भी वही है श्रीराम| उनकी भक्ति से ही मोक्ष प्राप्त होता है| ऐसे श्रीराम जी अपने दास का सदैव अभिमान ही करते है , उसकी उपेक्षा कदापि नही करते|

श्लोक... ३७ [मराठी ]
सदा चक्रवाकासि मार्तण्ड जैसा|
उडी घालितो संकटी स्वामी तैसा||
हरि भक्तिचा घाव गाजे निशाणी|
नुपेक्षी कदाराम दासाभिमानी||श्रीराम||३७||
[हिन्दी मे]
सदा चक्रवाक बना मार्तण्ड जैसा |
दौडा है आता संकट में स्वामी वैसा|
हरी भक्तो का गीत गरजता है डंका|
उपेक्षा न करता राम सखा है भक्त का||३७||
अर्थ... श्रीरामदास जी कहते है कि हे मानव मन ! जिस प्रकार से चक्रवात के समय सामने सूर्य आ जाता है|वैसे ही संकट के समय मे साथ देने वाले स्वामी श्रीराम जी है| ऐसे स्वामी की अच्छाईयो की गूंन्ज नगारो पर हरि भक्ति के रुप मे गुंजती रहती है| ऐसे श्रीराम सदैव अपने भक्तो का अभिमान ही करते है, उसकी उपेक्षा कभी भी नही करते|

[श्लोक नंबर २७ से ३७ तक" श्रीराम जी भक्तो के स्वाभिमान की रक्षा करते है एवं श्लोक नंबर ३८ से ४२ तक मनुष्य को श्रीराम के मन मे बसने का आग्रह करते है| ]

श्लोक ३८..[मराठी]
मना प्रार्थना तुजला एक आहे|
र्घुनाथ थक्कित होऊनी पाहे||
अवज्ञा कदा हो यदर्थी न कीजे|
मना सज्जना राघवी वस्तिकीजे||श्रीराम||३८||
[हिन्दी मे]
हे मन प्रार्थना तुझको एक है रे|
रघुनाथ आश्चर्य चकित हो के देखे||
अवज्ञा कभी भी मन तु न कर रे|
हे मन सज्जन राघव के मन बस रे||३८||
अर्थ..... श्रीरामदासजी कहते है कि हे मानव मन ! तुमसे एक प्रार्थना है कि तुम्हारा आचरण सदैव ऐसा हो जिसको देखकर श्री राम चन्द्र जी भी आश्चर्य चकित हो कर देखते रह जाये| हमाराऐसा व्य्वहार हो जिसमे किसी का अनादर ना हो | हे मनुष्य ! ऐसे सज्जन पुरुष बनकर जीवन जियो तथा श्रीराम स्वरुपी सदैव लीन होकर रहो,अर्थात् श्री राघव को अपने मन मे बसाओ और खुद भी राघव के मन मे समाओ|

श्लोक ३९..[मराठी]
जया वर्णिती वेद शास्त्रे पुराणे |
जयाचेनि योगे समाधान बाणे||
तयालागि हे सर्व चांचल्य दीजे|
मना सज्जना राघवी वस्ति कीजे||श्रीरम||३९||
[हिन्दी मे]
वदे शास्त्र पुराण जिसे है वर्णता|
जिसके दर्शन से समाधान मिलता||
उसके लिये ये चंचलता दी जो|
हे मन ! सज्जन राघव मन बस जो||
अर्थ.... श्रीरामदासजी कहते है कि हे मानव ! जिसका वेद शास्त्र पुराणो मे भी वर्णन है जो योग कर्मादि मे, समाधि मे लीन हो उसके इस कार्य से समाधान प्राप्त होता है, उसे यह सारी चंचलता दे दो | हे मनुष्य ! ऐसे सज्जन पुरुष बनकर श्रीराम स्वरुप मे लीन होकर रहना चाहिये|

श्लोक ४०.. [मराठी]
मना पाविजे सर्व ही सूख जेथे|
अती आदरे ठेविजे लक्ष तेथे||
विवेके कुडी कल्पना पालटीजे |
मना सज्जना राघवी वस्ति कीजे||श्रीराम||४०||
[हिन्दी मे]
हे मन तु चाहे सारे सुख जहॉ पर|
अति आदर रखता लक्ष से वहॉ पर||
बुरी कल्पना जो विवेक से है जाती|
हे सज्जन मन राघव मन कर बस्ती||श्रीराम||४०||
अर्थ..... श्रीराम दास जी कहते है कि हे मनुष्य ! तु कितना स्वार्थी है कि जहॉ पर सारी सुख सुविधाये प्राप्त होती है वही पर ज्यादा आदर देने का कार्य करता है तथा उसी व्यक्ति मात्र की ओर ध्यान देता है|अत: हे मानव ! परमेश्वर का भी ऐसा ही होता है कि जहॉ उसे याद किया जाता है वही वह ध्यान देता है| इसलिये अपने मन की बुरी तथा दुष्ट अर्थात् अशुध्द कल्पनाओं को अपने मन से दूर करना चाहिये तथा श्रीराम की भक्ति मे लीन रहना चाहिये|
श्लोक ७..[मराठी]
मना श्रेष्ट धारिष्ट जीवी धरावे|
मना बोलणे नीच सोशीत जावे||
स्वये सर्वदा नम्र वाचे वदावे |
मना सर्व लोकांसी रे नीववावे||७||
[हिन्दी मे......]
अंतर के मन मे श्रेष्ठता जो हो|
दुसरे का बुरा बोलना तु सह जो||
स्वयं सर्वदा नम्र वाचा से बोलो|
नम्रता से सबको अपना बनाओ||७||
अर्थ.....श्रीराम दासजी कहते है कि हे मनुष्य मन ! मन मे विचारो मे सदैव श्रेष्ठता एवं धैर्य रखना चाहिये |मनुष्य के बोलने मे ओछापन [हल्कापन] आये तो उसे तुरंत छोड देना चाहिये| मनुष्य को सदैव नम्र भाषा मे बात करना चाहिये| जब दूसरा कुछ बूरा भी बोले तो सहना चाहिये| जिससे दुसरा नमता है| नम्रता से बात कहने से दूसरो से भी सदैव नम्रता का व्यवहार मिलता है और मनुष्य को संतोष प्राप्त होता है| इसलिये हे मन ! सदैव नम्रता पूर्वक व्यवहार से दुसरे को संतुष्ट रखना चाहिये| जिससे हम भी संतुष्ट एवं शांत रह सकते है|................

श्लोक ८.....[मराठी]
देहे त्यागिता किर्ती मागे उरावी |
मना सज्जना हेचि क्रिया धरावी||
मना चंदनाचे परीत्वा झीजावे|
परी अंतरी सज्जना नीववावे||८||
[हिन्दी मे...]
देह छोडने पर कीर्ती बचे रे|
हे मन इसकी तु क्रिया तो कर रे||
चन्दन के जैसे जीवन को जीना|
पर अंतर मन से दुसरो को नमना||८||
अर्थ...
श्रीराम दास जी कहते है कि हे मानव ! सदैव इस तरह सज्जनता पूर्वक कार्य
करते रहना चाहिये जिससे हमारे अंतकाल पश्चात् भी हमारी कीर्ती बनी रहे| लोग
हमे याद करते रहे| हे मन ! सदैव अपने जीवन को दुसरो के भले के लिये अर्पित
करते रहो ,जैसे चंदन सदैव दूसरो को खुशबू एवं ठंडक देता रहता है| अंतर मन
से सज्जन लोगो के प्रति वैसे ही श्रध्दा खना चाहिये | श्रध्दापूर्ण व्यवहार
से सज्जन लोगो के मन मे आदर का स्थान प्राप्त होता है|| और हमारा जीवन
सार्थक होता है|......

श्लोक..९..[मराठी|
नको रे मना द्रव्य ते पूढीलांचे|
अति स्वार्थ बुध्दि न रे पाप साचे||
घडे भोगणे पाप ते कर्म खोटे|
नहोता मना सारीखे दु:ख मोठे||९||
[हिन्दी मे]....
मोह ना तु कर रे ,यह द्रव्य दूसरों का|
अति स्वार्थ बुध्दि से पापो से जुडता||
भोगना पडेगा, पाप का कर्म खोटा|
तब है मन को बडा ही दुख होता||श्रीराम||९||
अर्थ..........श्री
राम दासजी कहते है कि हे मनुष्य ! दूसरो के धन द्रव्य का लोभ नही करना
चाहिये| अत्यंत स्वार्थ बुध्दि से पाप कर्मो का संचय होता है| इसलिये
मनुष्य को स्वार्थ बुध्दि के कारण गलत कार्य नही करना चाहिये क्योकि जब हमे
अपने खोटे कर्मो का फ़ल भोगना पडता है ,तब हमारे मन को अत्यंत कष्ट होता
है| उस समय मनुष्य के मन को होने वाले कष्ट अत्यंत असीम दुखदायी होते है|
अत: स्वार्थ से परे अपना जीवन व्यतीत करना चाहिये|............

श्लोक..१०..[मराठी|
सदा सर्वदा प्रीति रामी धरावी|
दुखाची स्वये सांडी जीवी करावी||
देहे दुख ते सुख मानीत जावे|
विवेके सदा सस्वरुपी भरावे||
हिन्दी मे...
सदा सर्वदा राम से प्रिती कर रे|
जिससे दुखो से दूरी होती रे||
देहे दुख को सुख समझाते जाओ|
ज्ञान से सदा सत् स्वरुप मे भर जाओ||१०||
अर्थ...श्रीराम दास जी कहते है कि हे मनुष्य ! सदैव श्रीराम के प्रति प्रीति रखना चाहिये, जिसके कारण स्वयं ही दुखो का नाश होता है, अर्थात् दुखो से मुक्ति मिलती है|
अपने को किसी भी प्रकार के होने वाले कष्ट को सुख समझकर कार्य करते रहना चाहिये| अर्थात् विवेक से सदैव कार्य करते रहना चहिये और ज्ञान के द्वारा अपने जीवन को सार्थक करना चाहिये||१०||श्रीराम||.......

श्लोक. ११.........[मराठी]
जगी सर्व सुखी असा कोण आहे|
विचारे मना तोची शोधुनी पाहे||
मना त्वाचि रे पूर्व संचीत केले |
तया सारीखे भोगणे प्राप्त झाले||श्रीराम||११||
[हिन्दी में.]................
सारे सुखो से भरा है कौन है रे|
सोच मन का ये शोध तु कर ले रे||
जैसा कर्म पूर्व में तुने किया रे|
वैसा ही भोग प्राप्त तुझको हुआ रे||श्रीराम||११||
अर्थ..----- श्री राम दास जी कहते है कि हे मनुष्य मन ! संसार में ऐसा कौन सा मानव है जो सर्व सुखो से सम्पन्न है| अगर सारे संसार में ढूंढकर भी देखोगे तो ऐसा मानव नही मिलेगा| मनुष्य ने पूर्व में जैसा कार्य करके संचय किया होता है वैसा की कर्म भोग उसे प्राप्त होता है| अत: हे मनुष्य ! सदैव सद्कर्म करते रहना चाहिये| और अपने जीवन का मार्ग सरल एवं सहज कर लेना चाहिये|.................

श्लोक १२.... [मराठी]
मना मानसी दु:ख आणू नको रे|
मना सर्वथा शोक चिंता नको रे||
विवेके देहेबुध्दि सोडून द्यावी|
विदेही पणे मुक्ति भोगीत जावी||श्रीराम||१२||
[हिन्दी मे--]
मन में कभी दु:ख लाया न कर रे|
सदा सर्वथा शोक चिंता न कर रे||
देहे बुध्दि का भार छोड तु दे रे|
विदेही बन कर तु मुक्त तो हो रे||श्रीराम||१२||
अर्थ==
श्री राम दास जी के अनुसार - हे मनुष्य ! अपने मन को किसी भी प्रकार के
कार्य से दु:खी नही करना चाहिये| मन को कभी भी शोक या चिन्ता का लेशमात्र
भी नही छुना चाहिये|सदैव अपने स्वविवेक से कार्य करते रहना चाहिये एवं अपने
शरीर के मायारुपी मोह से मुक्त होकर जीवन जीना चाहिये| जिससे जीवन के
भोग-विलास के मोह का न मिलने का कष्ट नही होता है और देह्बुध्दि का मोह
छोडकर मुक्त जीवन जीना चाहिये|........

श्लोक.... १३..[मराठी]
मना सांग पा रावणा काय झाले|
अकस्मात ते सर्वे राज्ये बुडाले||
म्हणोनि कुडी वासना सांडी वेगी|
बळे लागला काळ हा पाठी लागी||१३||
[हिन्दी मे.....]
बता मन रावण का क्या हाल हुआ रे|
अकस्मात सारा राज्य डूबा रे ||
बुरी वासना छोड तु तेजी से रे |
जबर काल तेरे पीछे लगा री||
अर्थ........ श्रीराम दासजी कहते है कि हे मनुष्य ! तुम जानते हो रावण का क्या हश्र [हाल] हुआ था? विद्वान और होशियार होने पर भी अहंकार के कारण सारा राज पाट नष्ट [चौपट] हो गया | इसलिये कहते है कि दुष्ट वासनाओ को छोडकर कार्य करने से सर्वनाश नही होता है, क्योकि मन की अहंकार पूर्ण दूर्भावना के कारण "काल" सर्वनाश करने के लिये तैयार रहता है| इसलिये अहंकार न करो और नम्रतापूर्वक व्यवहार से अपना जीवन सार्थक करने का प्रयास करो| ........................

श्लोक १४.....[मराठी]
जिवा कर्म योगे जनी जीव झाला|
परी शेवटी काळ मुखी निमाला||
महाथोर ते म्रुत्यु पंथेचि गेले |
किती एक ते जन्मले आणि मेले||१४||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
कर्म योग से रे जीव जन्म आया|
पर अंत मे काल ले के है जाया||
महान है जो म्रुत्यु पंथ पर गये रे|
न जाने कितने ज्न्मे और मर गये रे||१४||श्रीराम||
अर्थ.......
श्री रामदास जी कहते है कि हे मानव मन ! यह जीवन हमे अच्छा कर्म करने से
प्राप्त होता है| कोई भी इस जगत मे अमर नही है| इस जीवन के अनंत काल के पथ
पर कितने ही आये और चले गये| समयानुसार अंत मे प्रत्येक को मरण प्राप्त
होना ही है| काल ने किसी को भी नही छोडा है| इसलिये इस अनमोल जीवन मे सद्
कर्म करके ही जीवन जीने का प्रयास करना चाहिये और अपना जीवन सार्थक करना
चाहिये|.............

श्लोक १५ [मराठी]
मना पाहतां सत्य हे म्रुत्युभूमी|
जिता बोलती सर्व ही जीव मी -मी||
चिरंजीव हे सर्व ही मानिताती|
अकस्मात सांडुनिया सर्व जाती||१५||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
हे मन जान सत्य ये म्रुत्यु भूमि|
जीते बोलते सारे जीव देखो मी-मी||
चिरंजीव अपने को मानते है ये सब|
अकस्मात छोडकर जाते है वो तब||१५||
अर्थ.............. श्री रामदास जी कहते है कि हे मन ! जीवन का सबसे बडा सत्य म्रुत्यु भूमि ही है| फ़िर भी लोग "मै" का पाठ पढते रहते है| सभी लोग अपने आपको अमर समझते है ,परन्तु देखते ही देखते सब कुछ चौपट हो जाता है| इसलिये हे मनुष्य ! सत्य को समझकर अहंकार को छोडकर जीवन पथ की ओर निश्चिन्त होकर उस परमेश्वर के भरोसे जीवन सौपकर चलो, क्योकि कोई नही जानता कि कब अंत होना है| अत: अचानक ही सब कुछ नष्ट हो जायेगा| इसलिये हे मानव ! अपने जीवन मे सावधान होकर जीवन यापन करने का प्रयास कर|........................

श्लोक १६.[मराठी]
मरे एक त्याचा दुजा शोक वाहे|
अकस्मात तोहि पुढे जात आहे||
पुरेना जनी लोभ रे क्षोभ त्याते|
म्हणोनि जनी मागुता जन्म घेते||१६||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
मरा एक जो रे दुजा शोक करता|
अकस्मात वो भी आगे है जाता||
पुरता कभी ना क्षोभ लोभ उसको|
तभी बार-बार है जन्मता जो वो||१६||
अर्थ......श्री रामदासजी कहते है कि हे मनुष्य ! ध्यान रहे कि जो व्यक्ति मरता है उसके मरने के उपरान्त दूसरे शोक करते है,परन्तु यही सत्य है कि जो शोक करता है उसका भी आगे चलकर अचानक अन्त है |,अर्थात् उसे भी एक न एक दिन जाना [मरना] ही है| फ़िर भी लोगो का जीवन मे लोभ बढ्ता ही रहता है और मन मे लोभ का उद्वेग बढता ही रहता है| अधीक जीवन जीने की चाह बनी रहती है| यही लोभ मनुष्य के नाश का कारण होता हैऔर बार-बार जन्म लेते है-मरते है|..................

श्लोक ....१७.. [मराठी]
मनी मानवा व्यर्थ चिन्ता वहाते|
अकस्मात होणार होऊनी जाते||
घडे भोगणे सर्व ही कर्म योगे|
मती मंद ते खेद मानी वियोगे||१७||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
अरे मन रे व्यर्थ, चिन्ता क्यो करते|
अचानक जो होना है होते ही रहते||
जो भोगना है वो कर्म योग से ही होता|
मतिमंद जो होता है वो खेद करता||१७||श्रीराम||
अर्थ............श्री राम दास जी कहते है कि मनुष्य व्यर्थ की चिंता ढोता रहता है और अचानक ही जो होना है वो हो ही जाता है| अत: हे मानव ! हम जो कुछ भोगते है सभी कुछ हमारे द्वारा किये हुए कर्मो का भोग होता है| मनुष्य अपनी मंद बुध्दि के कारण या कहा जा सकता है कि सोचने की शक्ति कम होने के कारण वियोग होने पर उसका दु:ख मनाता है| अत: चिन्ता से मुक्त रहकर मनुष्य को अछे कर्म करते रहना चाहिये|.............

[हिन्दी मे]श्लोक १८..... [मराठी]
मना राघवे वीण आशा नको रे |
मना मानवाची नको कीर्ति तू रे||
जया वर्णिती वेद शास्त्रे पुराणे |
तया वर्णितां सर्व ही श्लाघ्यवाणे||१८||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
राघव के बिन कोई आशा ना पालो|
नश्वर संसार को तुम तो भूल जाओ||
जिसे वर्णते है वेद शास्त्र पुराण|
उसे वर्णते सारे ही श्लाघ्य आन||१८||श्रीराम||
अर्थ.....श्रीरामदासजी
कहते है कि हे मनुष्य मन ! श्रीराम चन्द्र जी के बिना किसी की भी आस नही
करना चाहिये| राघव की भक्ति के अलावा मानव जीवन मे सब कुछ व्यर्थ है| यदि
मनुष्य कीर्ति प्राप्त करना चाहता है तो केवल श्रीराम चद्रजी की निस्वार्थ
भक्ति करे| जिसका वर्णन वेद शास्त्र पुराणो मे भी किया गया है| अत: उसका
पठन -पाठन तथा वर्णन करने वाला ही सभी लोगो मे प्रशंसनीय माना जाता है| अत:
कीर्ति पाने के लिये श्रीराम की भक्ति ही सबसे अच्छा साधन है|..............

श्लोक १९... [मराठी]
मना सर्वथा सत्य सांडू नको रे|
मना सर्वथा मिथ्य मांडूं नको रे||
मना सत्य ते सत्य वाचे वदावे|
मना मिथ्य ते सर्व सोडुनी द्यावे||१९||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
अरे सर्वथा सत्य छुटे कभी ना|
अरे सर्वथा मिथ्य लुटे कभी ना||
सदा सर्वदा सत्य वाचा वदो रे|
सदा मिथ्य वो सर्व छोड सो रे||
अर्थ....... श्री राम दास जी कहते है कि हे मनुष्य ! अपने मन को समझाओ कि कदापि सत्य की राह नही छोडना चाहिये| सत्य की राह ही जीवन का सार है तथा झूठ का साथ कभी नही देना चाहिये क्योकि झूठ की राह पर चलने पर उससे बचने के लिये हर कदम पर झूठ का सहारा लेना पडता है| सदैव ही बोलते समय सत्य वाणी ही बोलना चाहिये और झूठ से सदैव दूर रहना चाहिये|....................

श्लोक २० [मराठी]
बहु हिंपुटी होइजे माय पोटी |
नको रे मना यातना तेचि मोठी||
निरोधे पचे कोडिले गर्भ वासी||
अधोमूख रे दु:ख त्या बाळ्कासी||२०||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
गर्भ वास है रे अति यातना का|
नही रे नही वो कभी भी कभी ना||
भयावह ये यातना है प्राणि को रे|
अधोमुख हो जीव घबरा रहा रे||२०||श्रीराम||
अर्थ...... श्री समर्थ राम दास जी कहते है कि हे मानव ! जब तक बच्चा मॉ के पेट में होता है उसे अत्यंत कष्ट होता है| उसकी यातनायें बहुत कष्टदायी होती है| गर्भवास में बालक को घुटन भरा बंदीवास होता है क्योकि उसमे बालक उल्टा लटका होता है| जो बालक को मूकतापूर्ण सहन करना ही होता है | जो कष्टदायी जीवन बालक को सहना ही होता है|............
प्रथम प्रुष्ठ.........

विषेश ..श्लोक...
उपासना को चलाओ तुम मन से|
भुदेव संतो को वंदित हो तन से||
सत्कर्म करने मे ही उम्र गुजारो|
सदामुख से मंगल वचन को सराहो||
अर्थ.......... श्री समर्थ रामदासजी कहते है कि परमेश्वर की उपासना अर्थात् भक्ति के मार्ग पर चलकर भक्ति के नियमो का द्रुढता पूर्वक पालन करते रहना चाहिये| प्रुथ्वी के देव अर्थात् संत लोगो के प्रति सदैव नम्रता का व्यवहार करते रहना चाहिये|संतो के प्रति सदैव नमित होकर रहने से सत् कर्म की प्रव्रुत्ति होती है| सदैव अच्छे कार्य अर्थात् सत्कर्म करते हुए जीवन को सार्थक करना चाहिये| श्रीरामदासजी का कहना है कि मुख से सदैव अम्रुतमय भाषा जा प्रयोग करना चाहिये|
||श्रीराम जय राम जय जय राम||.........


मनाचे श्लोक

॥ जय जय रघुवीर समर्थ ॥

श्री रामदासस्वामिंचे श्री मनाचे श्लोक

गणाधीश जो ईश सर्वा गुणांचा ।
मुळारंभ आरंभ तो निर्गुणाचा ॥
नमूं शारदा मूळ चत्वार वाचा ।
गमू पंथ आनंत या राघवाचा ॥ १ ॥

श्लोक [१]
गणो के धीश जो, गुणो के ईश है |
मूल के आरंभ में,सम्पूर्ण निर्गुण है||
नमन् शारदा को ,चत्वार की वाचा|
अनंत पथ है जो, राघव का साचा||
अर्थ.......श्री समर्थरामदासजी का कहना है कि श्री गणेश जो शिवगणो के एवं सर्व गुणो के राजा है, सभी गुणो से परिपूर्ण है,|वही जीवन के मूल मे अर्थात् आरंभ मे निर्गुण परब्रहम स्वरुप है, उन्हे नमन् करो और अन्तर्मन से मॉ सरस्वती का नमन् करो| इस प्रकार से अपनी चत्वार वाणी द्वारा ईश को प्राप्त करो| इस प्रकार परब्रहम परमेश्वर का किया नमन् श्रीराम को प्राप्त करने का अनंत पथ है| अत: इस पर चलकर अपना जीवन सार्थक करने का प्रयास करो||श्रीराम||१||..........


प्रथम प्रुष्ठ.........

विषेश ..श्लोक...
उपासना को चलाओ तुम मन से|
भुदेव संतो को वंदित हो तन से||
सत्कर्म करने मे ही उम्र गुजारो|
सदामुख से मंगल वचन को सराहो||
अर्थ.......... श्री समर्थ रामदासजी कहते है कि परमेश्वर की उपासना अर्थात् भक्ति के मार्ग पर चलकर भक्ति के नियमो का द्रुढता पूर्वक पालन करते रहना चाहिये| प्रुथ्वी के देव अर्थात् संत लोगो के प्रति सदैव नम्रता का व्यवहार करते रहना चाहिये|संतो के प्रति सदैव नमित होकर रहने से सत् कर्म की प्रव्रुत्ति होती है| सदैव अच्छे कार्य अर्थात् सत्कर्म करते हुए जीवन को सार्थक करना चाहिये| श्रीरामदासजी का कहना है कि मुख से सदैव अम्रुतमय भाषा जा प्रयोग करना चाहिये|
||श्रीराम जय राम जय जय राम||.........


मना सज्जना भक्तिपंथेची जावे ।
तरी श्रीहरी पाविजेतो स्वभावे ॥
जनीं निंद्य ते सर्व सोडूनी द्यावे ।
जनीं वंद्य ते सर्व भावे करावे ॥ २ ॥

श्लोक [२].....
हे मन सज्जन, मार्ग भक्ति पर जाना|
तभी श्री हरि को सहज में है पाना||
जनी नींद्य है जो, उसे छोड दे रे|
जनी वंद्य है जो उसे क्र तु ले रे||श्रीराम||२||
अर्थ-- श्री रामदास जी कहते है कि हे मानव मन ! नम्रता पूर्वक सज्जन लोगो की तरह भक्ति के मार्ग पर चलते रहना चहिये| जिसमे तुम्हारा कल्याण है| सज्जनता के व्यवहार से तुम श्री हरि को स्वाभाविक रुप से पा सकने मे समर्थ हो सकोगे | हे मानव ! जो कार्य मानव समाज मे नींदा करने योग्य या लज्जा जनक हो उसे छोडने का प्रयत्न करना चाहिये| जो वंदन करने योग्य हो उसे सदैव करते रहना चाहिये| जिसके कारण तुम स्वाभाविक रुप से श्री हरि के निकट अपने को पा सकोगे||२||


प्रभाते मनीं राम चिंतीत जावा ।
पुढे वेखरी राम आधी वदावा ॥
सदाचार हा थोर सांडू नये तो ।
जनीं तोचि तो मानवी धन्य होतो ॥ ३ ॥

श्लोक [३]...
प्रभाती समय मे, श्रीराम को ध्याओ|
मुख से प्रथम राम ,शब्द निकालो||
सदाचार महान है कभी छोडो इसे न|
वही जन मे मानव होता रे धन्य||श्रीराम३||
अर्थ....... श्रीरामदासजी कहते है कि हे मानव ! प्रात: समय मे मुख से श्रीराम का चिंतन करते रहना चाहिये | सदैव सदाचार का आचरण रखना चाहिये| वाणी से प्रथम श्रीराम कहो, तब घर संसार अर्थत् प्रपंच का कार्य प्रारंभ करना चाहिये| सदाचार का आचरण रखना सदैव महानता का लक्षण है|उसका जो पालन करेगा वही मानव जीवन मे धन्य तथा वंदनीय है||३||..


मना वासना दुष्ट कामा न ये रे ।
मना सर्वथा पापबुद्धी नको रे ॥
मना सर्वथा नीति सोडू नको हो ।
मना अंतरी सार वीचार राहो ॥ ४ ॥

श्लोक ४...
मन की वासना दुष्ट है जो काम ना आती|
मन सर्वथा दे छोड पाप की बुध्दि||
मन धर्मता निती छोडो कभी ना|
मन अंतर मे सार विचार हो जा||४||श्रीराम||
अर्थ......... श्री राम दास जी कहते है कि हे मानव मन ! दुष्ट वासना तथा दुर्भावना कभी काम नही आती है| अत: पाप की बुध्दि दुष्टता से सदैव दूर रहना चाहिये| नीति पूर्ण कार्य और धर्म अर्थात् अपने कर्त्तव्यो के प्रति निष्टा रखना चाहिये | उसे छोडकर चलने से मन कभी भी शांत एवं संतुष्ट नही रहता |अंतर मन के विचारो मे सदैव शाश्वतता का विचार रहे अर्थात् सदैव परोपकार की भावना होना चाहिये||........



मना पापसंकल्प सोडूनि द्यावा ।
मना सत्य संकल्प जीवी धरावा ॥
मना कल्पना ते नको वीषयांची ।
विकारे घडे हो जनीं सर्व ची ची ॥ ५ ॥

श्लोक ५............
हे मन पाप संकल्प तु छोड दे रे|
मन मे सत्य का संकलप धर रे||
कल्पना ना कर मन मे विषयो की|
मन की विक्रुती ना हो जनो की||
अर्थ---श्रीरामदासजी कहते है कि हे मानव मन ! पाप कर्म करने का संकल्प छोड देना चाहिये,बल्कि पाप कर्म का संकल्प करना ही नही चाहिये| मन को सदैव निर्मल ,पवित्र होना चाहिये| सत्य के मार्ग का संकल्प सदैव होना चाहिये | मानसिकता मे विषयो के प्रति भावनाये नही होना चाहिये |नाना विषयो की कल्पना के कारण लोगो के मन मे विकार पैदा होते है| दुर्भावनाये और दुष्टता आती है| जिससे वह स्वयं का एवं समाज का नाश करता है|अत: सदैव सद्भावना से मनुष्य को अपने व्यक्तित्व मे निखार लाना चाहिये|..........


नको रे मना क्रोध हा खेदकारी ।
नको रे मना काम नाना विकारी ॥
नको रे मना सर्वदा अंगिकारू ।
नको रे मना मत्सरू दंभ भारू ॥ ६ ॥

श्लोक ६............
क्रोध तु ना कर जो होता है खेदकारी |
मन की कामना होती तब नाना विकारी||
अंगीकार ना कर लोभ कातु रे|
मन,मत्सर दंभ से भर ना तु रे|
अर्थ.....................श्रीराम दासजी कहते है कि हे मनुष्य मन ! क्रोध ना करो| क्रोध करने से अंत मे पश्चाताप करना पडता है| नाना प्रकार के विकार पैदा करने वाले कार्य कभी भी नही करने चाहिये| अपने मन मे लोभ की भावना पैदा नही करना चाहिये| अपने मे अहंकार एवं द्वेष की भावना कभी भी नही रखना चाहिए|वरना हम अपना ही नाश कर लेते है|लोभी मानव के लिये यह कार्य विकार पैदा करता है| अत: अहंकार एवं द्वेष से सदैव दूर रहना चाहिये| वरना अंत मे पछताना पडता है| .....

"Manache shlok " in Hindi



"मनाचे श्लोक" हिंदी मे

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मै यहा समर्थ रामदास स्वामी जि के द्वारा लिखित मनाचे श्लोक (मनोबोध) के मराठि श्लोक और उसका हिन्दी अनुवाद यथाशक्ति दे रही हू. सदगुरु समर्थ रामदास जी का हर एक वचन वेदमंत्र के समान है, उन्होने मानवी मन को जो उपदेश दिया है , वो मनोबोध तथा मनाचे श्लोक नाम से जाना जाता है.हर एक श्लोक हमारे जीवन को संजीवन प्राप्त करा देता है! सदगुरु क्रुपा से मै यह संकल्प पुरा करने का यत्न कर रहि हु! आशा है कि आप सभी को यह हिंदी अनुवाद पसंद आयेगा!
आपके सुझाव, प्रतिक्रिया का मै स्वागत करती हु.
जय जय रघुविर समर्थ!

सौ. लोचन काटे,ग्वाल्हेर

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