Saturday, August 7, 2010

श्लोक ७..[मराठी]
मना श्रेष्ट धारिष्ट जीवी धरावे|
मना बोलणे नीच सोशीत जावे||
स्वये सर्वदा नम्र वाचे वदावे |
मना सर्व लोकांसी रे नीववावे||७||
[हिन्दी मे......]
अंतर के मन मे श्रेष्ठता जो हो|
दुसरे का बुरा बोलना तु सह जो||
स्वयं सर्वदा नम्र वाचा से बोलो|
नम्रता से सबको अपना बनाओ||७||
अर्थ.....श्रीराम दासजी कहते है कि हे मनुष्य मन ! मन मे विचारो मे सदैव श्रेष्ठता एवं धैर्य रखना चाहिये |मनुष्य के बोलने मे ओछापन [हल्कापन] आये तो उसे तुरंत छोड देना चाहिये| मनुष्य को सदैव नम्र भाषा मे बात करना चाहिये| जब दूसरा कुछ बूरा भी बोले तो सहना चाहिये| जिससे दुसरा नमता है| नम्रता से बात कहने से दूसरो से भी सदैव नम्रता का व्यवहार मिलता है और मनुष्य को संतोष प्राप्त होता है| इसलिये हे मन ! सदैव नम्रता पूर्वक व्यवहार से दुसरे को संतुष्ट रखना चाहिये| जिससे हम भी संतुष्ट एवं शांत रह सकते है|................

श्लोक ८.....[मराठी]
देहे त्यागिता किर्ती मागे उरावी |
मना सज्जना हेचि क्रिया धरावी||
मना चंदनाचे परीत्वा झीजावे|
परी अंतरी सज्जना नीववावे||८||
[हिन्दी मे...]
देह छोडने पर कीर्ती बचे रे|
हे मन इसकी तु क्रिया तो कर रे||
चन्दन के जैसे जीवन को जीना|
पर अंतर मन से दुसरो को नमना||८||
अर्थ...
श्रीराम दास जी कहते है कि हे मानव ! सदैव इस तरह सज्जनता पूर्वक कार्य
करते रहना चाहिये जिससे हमारे अंतकाल पश्चात् भी हमारी कीर्ती बनी रहे| लोग
हमे याद करते रहे| हे मन ! सदैव अपने जीवन को दुसरो के भले के लिये अर्पित
करते रहो ,जैसे चंदन सदैव दूसरो को खुशबू एवं ठंडक देता रहता है| अंतर मन
से सज्जन लोगो के प्रति वैसे ही श्रध्दा खना चाहिये | श्रध्दापूर्ण व्यवहार
से सज्जन लोगो के मन मे आदर का स्थान प्राप्त होता है|| और हमारा जीवन
सार्थक होता है|......

श्लोक..९..[मराठी|
नको रे मना द्रव्य ते पूढीलांचे|
अति स्वार्थ बुध्दि न रे पाप साचे||
घडे भोगणे पाप ते कर्म खोटे|
नहोता मना सारीखे दु:ख मोठे||९||
[हिन्दी मे]....
मोह ना तु कर रे ,यह द्रव्य दूसरों का|
अति स्वार्थ बुध्दि से पापो से जुडता||
भोगना पडेगा, पाप का कर्म खोटा|
तब है मन को बडा ही दुख होता||श्रीराम||९||
अर्थ..........श्री
राम दासजी कहते है कि हे मनुष्य ! दूसरो के धन द्रव्य का लोभ नही करना
चाहिये| अत्यंत स्वार्थ बुध्दि से पाप कर्मो का संचय होता है| इसलिये
मनुष्य को स्वार्थ बुध्दि के कारण गलत कार्य नही करना चाहिये क्योकि जब हमे
अपने खोटे कर्मो का फ़ल भोगना पडता है ,तब हमारे मन को अत्यंत कष्ट होता
है| उस समय मनुष्य के मन को होने वाले कष्ट अत्यंत असीम दुखदायी होते है|
अत: स्वार्थ से परे अपना जीवन व्यतीत करना चाहिये|............

श्लोक..१०..[मराठी|
सदा सर्वदा प्रीति रामी धरावी|
दुखाची स्वये सांडी जीवी करावी||
देहे दुख ते सुख मानीत जावे|
विवेके सदा सस्वरुपी भरावे||
हिन्दी मे...
सदा सर्वदा राम से प्रिती कर रे|
जिससे दुखो से दूरी होती रे||
देहे दुख को सुख समझाते जाओ|
ज्ञान से सदा सत् स्वरुप मे भर जाओ||१०||
अर्थ...श्रीराम दास जी कहते है कि हे मनुष्य ! सदैव श्रीराम के प्रति प्रीति रखना चाहिये, जिसके कारण स्वयं ही दुखो का नाश होता है, अर्थात् दुखो से मुक्ति मिलती है|
अपने को किसी भी प्रकार के होने वाले कष्ट को सुख समझकर कार्य करते रहना चाहिये| अर्थात् विवेक से सदैव कार्य करते रहना चहिये और ज्ञान के द्वारा अपने जीवन को सार्थक करना चाहिये||१०||श्रीराम||.......

श्लोक. ११.........[मराठी]
जगी सर्व सुखी असा कोण आहे|
विचारे मना तोची शोधुनी पाहे||
मना त्वाचि रे पूर्व संचीत केले |
तया सारीखे भोगणे प्राप्त झाले||श्रीराम||११||
[हिन्दी में.]................
सारे सुखो से भरा है कौन है रे|
सोच मन का ये शोध तु कर ले रे||
जैसा कर्म पूर्व में तुने किया रे|
वैसा ही भोग प्राप्त तुझको हुआ रे||श्रीराम||११||
अर्थ..----- श्री राम दास जी कहते है कि हे मनुष्य मन ! संसार में ऐसा कौन सा मानव है जो सर्व सुखो से सम्पन्न है| अगर सारे संसार में ढूंढकर भी देखोगे तो ऐसा मानव नही मिलेगा| मनुष्य ने पूर्व में जैसा कार्य करके संचय किया होता है वैसा की कर्म भोग उसे प्राप्त होता है| अत: हे मनुष्य ! सदैव सद्कर्म करते रहना चाहिये| और अपने जीवन का मार्ग सरल एवं सहज कर लेना चाहिये|.................

श्लोक १२.... [मराठी]
मना मानसी दु:ख आणू नको रे|
मना सर्वथा शोक चिंता नको रे||
विवेके देहेबुध्दि सोडून द्यावी|
विदेही पणे मुक्ति भोगीत जावी||श्रीराम||१२||
[हिन्दी मे--]
मन में कभी दु:ख लाया न कर रे|
सदा सर्वथा शोक चिंता न कर रे||
देहे बुध्दि का भार छोड तु दे रे|
विदेही बन कर तु मुक्त तो हो रे||श्रीराम||१२||
अर्थ==
श्री राम दास जी के अनुसार - हे मनुष्य ! अपने मन को किसी भी प्रकार के
कार्य से दु:खी नही करना चाहिये| मन को कभी भी शोक या चिन्ता का लेशमात्र
भी नही छुना चाहिये|सदैव अपने स्वविवेक से कार्य करते रहना चाहिये एवं अपने
शरीर के मायारुपी मोह से मुक्त होकर जीवन जीना चाहिये| जिससे जीवन के
भोग-विलास के मोह का न मिलने का कष्ट नही होता है और देह्बुध्दि का मोह
छोडकर मुक्त जीवन जीना चाहिये|........

श्लोक.... १३..[मराठी]
मना सांग पा रावणा काय झाले|
अकस्मात ते सर्वे राज्ये बुडाले||
म्हणोनि कुडी वासना सांडी वेगी|
बळे लागला काळ हा पाठी लागी||१३||
[हिन्दी मे.....]
बता मन रावण का क्या हाल हुआ रे|
अकस्मात सारा राज्य डूबा रे ||
बुरी वासना छोड तु तेजी से रे |
जबर काल तेरे पीछे लगा री||
अर्थ........ श्रीराम दासजी कहते है कि हे मनुष्य ! तुम जानते हो रावण का क्या हश्र [हाल] हुआ था? विद्वान और होशियार होने पर भी अहंकार के कारण सारा राज पाट नष्ट [चौपट] हो गया | इसलिये कहते है कि दुष्ट वासनाओ को छोडकर कार्य करने से सर्वनाश नही होता है, क्योकि मन की अहंकार पूर्ण दूर्भावना के कारण "काल" सर्वनाश करने के लिये तैयार रहता है| इसलिये अहंकार न करो और नम्रतापूर्वक व्यवहार से अपना जीवन सार्थक करने का प्रयास करो| ........................

श्लोक १४.....[मराठी]
जिवा कर्म योगे जनी जीव झाला|
परी शेवटी काळ मुखी निमाला||
महाथोर ते म्रुत्यु पंथेचि गेले |
किती एक ते जन्मले आणि मेले||१४||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
कर्म योग से रे जीव जन्म आया|
पर अंत मे काल ले के है जाया||
महान है जो म्रुत्यु पंथ पर गये रे|
न जाने कितने ज्न्मे और मर गये रे||१४||श्रीराम||
अर्थ.......
श्री रामदास जी कहते है कि हे मानव मन ! यह जीवन हमे अच्छा कर्म करने से
प्राप्त होता है| कोई भी इस जगत मे अमर नही है| इस जीवन के अनंत काल के पथ
पर कितने ही आये और चले गये| समयानुसार अंत मे प्रत्येक को मरण प्राप्त
होना ही है| काल ने किसी को भी नही छोडा है| इसलिये इस अनमोल जीवन मे सद्
कर्म करके ही जीवन जीने का प्रयास करना चाहिये और अपना जीवन सार्थक करना
चाहिये|.............

श्लोक १५ [मराठी]
मना पाहतां सत्य हे म्रुत्युभूमी|
जिता बोलती सर्व ही जीव मी -मी||
चिरंजीव हे सर्व ही मानिताती|
अकस्मात सांडुनिया सर्व जाती||१५||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
हे मन जान सत्य ये म्रुत्यु भूमि|
जीते बोलते सारे जीव देखो मी-मी||
चिरंजीव अपने को मानते है ये सब|
अकस्मात छोडकर जाते है वो तब||१५||
अर्थ.............. श्री रामदास जी कहते है कि हे मन ! जीवन का सबसे बडा सत्य म्रुत्यु भूमि ही है| फ़िर भी लोग "मै" का पाठ पढते रहते है| सभी लोग अपने आपको अमर समझते है ,परन्तु देखते ही देखते सब कुछ चौपट हो जाता है| इसलिये हे मनुष्य ! सत्य को समझकर अहंकार को छोडकर जीवन पथ की ओर निश्चिन्त होकर उस परमेश्वर के भरोसे जीवन सौपकर चलो, क्योकि कोई नही जानता कि कब अंत होना है| अत: अचानक ही सब कुछ नष्ट हो जायेगा| इसलिये हे मानव ! अपने जीवन मे सावधान होकर जीवन यापन करने का प्रयास कर|........................

श्लोक १६.[मराठी]
मरे एक त्याचा दुजा शोक वाहे|
अकस्मात तोहि पुढे जात आहे||
पुरेना जनी लोभ रे क्षोभ त्याते|
म्हणोनि जनी मागुता जन्म घेते||१६||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
मरा एक जो रे दुजा शोक करता|
अकस्मात वो भी आगे है जाता||
पुरता कभी ना क्षोभ लोभ उसको|
तभी बार-बार है जन्मता जो वो||१६||
अर्थ......श्री रामदासजी कहते है कि हे मनुष्य ! ध्यान रहे कि जो व्यक्ति मरता है उसके मरने के उपरान्त दूसरे शोक करते है,परन्तु यही सत्य है कि जो शोक करता है उसका भी आगे चलकर अचानक अन्त है |,अर्थात् उसे भी एक न एक दिन जाना [मरना] ही है| फ़िर भी लोगो का जीवन मे लोभ बढ्ता ही रहता है और मन मे लोभ का उद्वेग बढता ही रहता है| अधीक जीवन जीने की चाह बनी रहती है| यही लोभ मनुष्य के नाश का कारण होता हैऔर बार-बार जन्म लेते है-मरते है|..................

श्लोक ....१७.. [मराठी]
मनी मानवा व्यर्थ चिन्ता वहाते|
अकस्मात होणार होऊनी जाते||
घडे भोगणे सर्व ही कर्म योगे|
मती मंद ते खेद मानी वियोगे||१७||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
अरे मन रे व्यर्थ, चिन्ता क्यो करते|
अचानक जो होना है होते ही रहते||
जो भोगना है वो कर्म योग से ही होता|
मतिमंद जो होता है वो खेद करता||१७||श्रीराम||
अर्थ............श्री राम दास जी कहते है कि मनुष्य व्यर्थ की चिंता ढोता रहता है और अचानक ही जो होना है वो हो ही जाता है| अत: हे मानव ! हम जो कुछ भोगते है सभी कुछ हमारे द्वारा किये हुए कर्मो का भोग होता है| मनुष्य अपनी मंद बुध्दि के कारण या कहा जा सकता है कि सोचने की शक्ति कम होने के कारण वियोग होने पर उसका दु:ख मनाता है| अत: चिन्ता से मुक्त रहकर मनुष्य को अछे कर्म करते रहना चाहिये|.............

[हिन्दी मे]श्लोक १८..... [मराठी]
मना राघवे वीण आशा नको रे |
मना मानवाची नको कीर्ति तू रे||
जया वर्णिती वेद शास्त्रे पुराणे |
तया वर्णितां सर्व ही श्लाघ्यवाणे||१८||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
राघव के बिन कोई आशा ना पालो|
नश्वर संसार को तुम तो भूल जाओ||
जिसे वर्णते है वेद शास्त्र पुराण|
उसे वर्णते सारे ही श्लाघ्य आन||१८||श्रीराम||
अर्थ.....श्रीरामदासजी
कहते है कि हे मनुष्य मन ! श्रीराम चन्द्र जी के बिना किसी की भी आस नही
करना चाहिये| राघव की भक्ति के अलावा मानव जीवन मे सब कुछ व्यर्थ है| यदि
मनुष्य कीर्ति प्राप्त करना चाहता है तो केवल श्रीराम चद्रजी की निस्वार्थ
भक्ति करे| जिसका वर्णन वेद शास्त्र पुराणो मे भी किया गया है| अत: उसका
पठन -पाठन तथा वर्णन करने वाला ही सभी लोगो मे प्रशंसनीय माना जाता है| अत:
कीर्ति पाने के लिये श्रीराम की भक्ति ही सबसे अच्छा साधन है|..............

श्लोक १९... [मराठी]
मना सर्वथा सत्य सांडू नको रे|
मना सर्वथा मिथ्य मांडूं नको रे||
मना सत्य ते सत्य वाचे वदावे|
मना मिथ्य ते सर्व सोडुनी द्यावे||१९||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
अरे सर्वथा सत्य छुटे कभी ना|
अरे सर्वथा मिथ्य लुटे कभी ना||
सदा सर्वदा सत्य वाचा वदो रे|
सदा मिथ्य वो सर्व छोड सो रे||
अर्थ....... श्री राम दास जी कहते है कि हे मनुष्य ! अपने मन को समझाओ कि कदापि सत्य की राह नही छोडना चाहिये| सत्य की राह ही जीवन का सार है तथा झूठ का साथ कभी नही देना चाहिये क्योकि झूठ की राह पर चलने पर उससे बचने के लिये हर कदम पर झूठ का सहारा लेना पडता है| सदैव ही बोलते समय सत्य वाणी ही बोलना चाहिये और झूठ से सदैव दूर रहना चाहिये|....................

श्लोक २० [मराठी]
बहु हिंपुटी होइजे माय पोटी |
नको रे मना यातना तेचि मोठी||
निरोधे पचे कोडिले गर्भ वासी||
अधोमूख रे दु:ख त्या बाळ्कासी||२०||श्रीराम||
[हिन्दी मे]
गर्भ वास है रे अति यातना का|
नही रे नही वो कभी भी कभी ना||
भयावह ये यातना है प्राणि को रे|
अधोमुख हो जीव घबरा रहा रे||२०||श्रीराम||
अर्थ...... श्री समर्थ राम दास जी कहते है कि हे मानव ! जब तक बच्चा मॉ के पेट में होता है उसे अत्यंत कष्ट होता है| उसकी यातनायें बहुत कष्टदायी होती है| गर्भवास में बालक को घुटन भरा बंदीवास होता है क्योकि उसमे बालक उल्टा लटका होता है| जो बालक को मूकतापूर्ण सहन करना ही होता है | जो कष्टदायी जीवन बालक को सहना ही होता है|............

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